फेमिनिज्म विध्वंस कर रहा है और हम नष्ट हो रहे हैं

जो वाद लोक से नहीं जुड़ा होता उसका अंत होना निश्चित है। जैसे हालिया फेमिनिस्म। उसे स्त्रीवाद मैं नहीं कह सकती क्योंकि स्त्री तो गुणवाचक हैं, स्त्री प्रकृति है, तो वह वाद में नहीं बंध सकती। वह कैसे किसी वाद में सीमित हो सकता है। इसलिए इसे फेमिनिज्म ही कहा जाए तो बेहतर होगा। स्त्री तो सुलभा सन्यासिनी जैसी रही, जिसने स्वतंत्र निर्णय लिया। स्त्री तो सीता और सावित्री जैसी रहीं जिन्होनें प्रेम में स्वतंत्रता की परिभाषा रची। स्त्री तो पार्वती हैं, जिनके पास शक्ति भी है और प्रेम भी है। वह हर वाद से परे हैं। इसलिए जब भी आधुनिक फेमिनिज्म को लेकर लड़ाई हो तो यह केवल व्यक्तिगत स्वार्थ की लड़ाई है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के वर्चस्व की लड़ाई है। आधुनिक फेमिनिज्म जो कि कथित “शोषित औरत” के सिद्धांत पर ही टिका हुआ है। फेमिनिस्ट लेखिका और प्रोफ़ेसर लिंडा गॉर्डोन का कथन है कि

“The nuclear family must be destroyed।।।whatever its ultimate meaning, the break-up of families now is an objectively revolutionary process।।।no woman should have to deny herself of any opportunities because of her special responsibility to her children..”

एक अन्य फेमिनिस्ट लेखिका Vivian Gornick, का कथन है

“being a housewife is an illegitimate profession.”

तो वहीं Sheila Cronin, जो National Organization of Women की नेता है वह लिखती हैं

“Since marriage constitutes slavery for women, it is clear that the women’s movement must concentrate on attacking this institution।” (The Feminist Lie Bob Lewis)

तो आपका जो फेमिनिजम है, वह उस कथित पितृसत्ता पर आधारित है जो भारत में संस्थागत रूप से नहीं थी, व्यक्ति के रूप में कोई व्यक्ति कैसा भी हो सकता है। क्योंकि भारत की सनातन और हिंदुत्व की चेतना यहाँ की स्त्रियों को जागृत बनाए रही, एवं मुगलों और उसके बाद अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान भी वह चैतन्य रही। यही कारण है कि जहाँ हमें अंग्रेजों, मुगलों के साथ लोहा लेने वाली रानियाँ मिलती हैं तो वहीं स्वतंत्रता आन्दोलन के आरम्भ में स्त्रियों का योगदान परिलक्षित होता है।

यहाँ पर स्त्रियाँ परिवार को तोड़ने वाले सिद्धांत पर नहीं चलीं, इसलिए जीजाबाई भी पति से अलग ही रहीं, पर उन्होंने परिवार के विरुद्ध कुछ नहीं कहा। वह मूल्यों को लेकर अपने पति से अलग हुई थीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर नहीं। भारत में विकसित स्त्री विमर्श वह विमर्श था जिसमे रोमशा और लोपामुद्रा जैसी स्त्रियों ने खुलकर अपने विचार रखे। जहां आप उस विमर्श को अपने कन्धों पर ढो रही हैं, जिसमें विवाह को तोड़कर स्वतंत्रता पाई जाती है और जो विमर्श जीतेगा वह ऋग्वेद का विमर्श है जिसमें दशम मंडल में विवाह सूक्त है जिसमें एक स्त्री सूर्या सावित्री, विवाह के मन्त्र रचती है। वह विवाह के माध्यम से सृजन का विमर्श रचती है तो वहीं आप जिस विमर्श को इस देश पर थोपने जा रही हैं वह प्रोपोगैंडा है, वह Misandry अर्थात पुरुषों के प्रति घृणा पर आधारित है, जबकि उन्हीं पुरुषों का सहारा आप अपने जीवन में ले रही हैं।

आप समानता के लिए लड़ रही हैं, जबकि समान दो लोग हो ही नहीं सकते। समान अधिकार की बात करने वाली समान उत्तरदायित्व पर रोने लगती हैं। जबकि हमारा समाज संपूरकता का समाज है। स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर अर्द्धनारीश्वर का रूप धरते हैं।

विध्वंस वाला विमर्श आपको कुंठित ही करेगा, जबकि अर्द्धनारीश्वर का विमर्श आपको सफलता की उन ऊंचाइयों पर ले जाएगा, जहाँ पर जाने की आप कल्पना नहीं कर सकती हैं। यदि कोई रिश्ता नहीं चला तो उसे छोड़ दीजिए, पर उसके लिए समाज को या धर्म की परम्परा को कोसना उचित नहीं है। फिर कहूँगी जिस दिन विमर्श की समझ हो जाएगी उस दिन व्यक्तिगत प्रहार बंद होते जाएंगे। मुद्दा है विमर्श को समझना, न कि उस विमर्श को अपने जीवन में स्थान देना जिसमें विध्वंस है और हर प्रकार का विध्वंस है।

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