लाहौर की गलियों में अभी भी राजा जयपाल का आत्मबलिदान जीवित है!

समय बीत चला है, लाहौर अब हमारे लिए पड़ोसी मुल्क का एक शहर हो गया है। वहां जाकर किस्से ही बदल जाते हैं, जबकि साझे इतिहास को साझा करने वाले भाई साझे अस्तित्व से भी घृणा करते हैं। यह उस इतिहास का कैसा दुर्भाग्य है, कि वह अपनी बात को यहाँ आकर कह नहीं सकता और हम खोजते नहीं। पाकिस्तान में ट्रेवल व्लॉगर्स कभी कभी उन कहानियों को अब हमारे सामने ले आते हैं। ठीक है, पैसे के लिए ही सही, मगर वह ले आते हैं हमारे साझे इतिहास की कहानी!

ऐसे ही कल एक वीडियो में एक व्यक्ति ले गया राजा जयपाल के महल! लाहौर में मोरी गेट में बनी एक हवेली, शायद महल का एक छोटा भाग होगी और उसमें बाहर उर्दू में लिखा था कि राजा जयपाल ने वर्ष 1005 में यहाँ पर जौहर कर लिया था। जौहर उस व्लॉगर ने कहा, मगर किसी राजा ने क्यों यह कदम उठाया होगा? क्या कारण रहा होगा? हालांकि जब सर्च किया तो यह वर्ष 1001 भी बताते हैं।

उसके बाद उस व्लॉगर ने जो कहा, वह चौंकाने वाला था। उसने कहा कि “यह कहा जाता है कि भारत के राजाओं ने दुश्मनों का मुकाबला नहीं किया, पूरी तरह से झूठ है क्योंकि राजा जयपाल ने सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी का सामना किया था”
जब राजा जयपाल ने सामना किया था, और लगातार संघर्ष किया था, तो फिर ऐसा क्या हुआ होगा कि उन्हें आत्मदाह करना पड़ा? राजा जयपाल की हवेली कहा जाने वाला वह महल इन दिनों सुनसान है। लोगों ने कहा कि वहां पर कोई आता जाता नहीं, लोगों को डर लगता है। क्या कोई उधर होगा अभी? न जाने कितनी कहानियाँ इसी प्रकर दफ़न हुई पड़ी हैं। इतिहास में यह बताया गया कि हम पर किसी ने भी आक्रमण किया और हमने उत्तर नहीं दिया।

उत्तर कैसे नहीं दिया? जब तलवार से आक्रमण किया गया तो कांगड़ा से लेकर अफगानिस्तान तक फैले राज्य के राजा जयपाल ने उत्तर दिया। जब संधि करनी पड़ी तो संधि की और जब युद्ध की बात आई तो युद्ध किया। राजा जयपाल का शासन कांगड़ा से लेकर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। उस समय गजनी की गद्दी पर सुबुक्तगीन शासन कर रहा था। कहा जाता है कि राजा जयपाल को यह समाचार मिला कि सुबुक्तगीन उनके राज्य पर आक्रमण करना चाहता है तो राजा जयपाल ने उसे रोकने का निर्णय लिया।

वह सेना लेकर काफी आगे बढ़ गए थे मगर गुजुक नामक स्थान पर पहुँचने पर एक बर्फीला तूफ़ान आ गया तो उन्हें काफी हानि उठानी पड़ी और एक अपमानजनक संधि उन्हें करनी पड़ी। मगर राजा जयपाल इस संधि को स्वीकार नहीं कर सके थे और उन्होंने शीघ्र ही इसे तोड़कर पुन: सुबुक्तगीन से युद्ध करना आरम्भ कर दिया।


इसी बीच उसकी मौत हो गयी और उसके उत्तराधिकारी महमूद गजनवी ने फिर से हमला करना शुरू कर दिया। वर्ष 1001 में जयपाल को गजनवी के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा।

जयपाल इस पराजय के चलते आत्मग्लानि में चले गए और उन्होंने इसी के चलते स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया। उन्होंने इससे पहले अपना उत्तराधिकारी अपने पुत्र आनंदपाल को बनाया, क्योंकि उन्हें यह आशा थी कि आनंदपाल अवश्य ही देश की रक्षा करेंगे। राजा जयपाल के इसी कदम को लाहौर के मोरी गेट पर जौहर कहकर लिखा गया है।

यहाँ पर यह बात नहीं है कि राजा जयपाल ने कैसे जीवन का बलिदान दिया, प्रश्न यह है कि राजा जयपाल का वह महल, जहां के एक छोटे हिस्से में अभी भी लोग जाने से डरते हैं, उसमें आखिर ऐसा क्या है, जो अपनी कहानी स्वयं ही कहने को लेकर उतारू है। राजा जयपाल का संघर्ष साधारण नहीं रहा होगा। क्या कोई उस क्षण की कल्पना भी कर सकता है कि जब अपने राज्य को मलेच्छों से न बचा पाया एक शासक तो स्वयं को बलिदान कर दिया?
इस पर विमर्श हो सकते हैं, परन्तु राजा जयपाल की इस कहानी को विमर्श में स्थान न मिलना बहुत हानिकारक है।

गजनवी से पहले सुबुक्तगीन का प्रहार झेलने वाला राजा एकदम ही विमर्श से गायब है? इतिहास से गायब है! इतिहास में ऐसा दिखाया जाता है कि जैसे गजनवी का विरोध ही किसी ने नहीं किया था और वह मात्र एक लुटेरा था, जिसने मंदिरों को लूटने के लिए भारत पर हमला किया था। यह बात सच है कि वह भारत की धनसंपदा से आकर्षित होकर ही आया था, क्योंकि बर्फीले तूफ़ान में फंसने के कारण जयपाल ने सुबुक्तगीन ने जो संधि की थी, उसके चलते उन्हें बहुत कुछ देना पड़ा था और वही देखकर उनकी आँखें फटी की फटी रह गयी थीं।
यहाँ पर लोगों ने विरोध किया, जो जिस स्तर पर कर सकता था उसने विरोध किया, संघर्ष के बाद भी जब पराजय मिली तो उसका भी प्रतिकार किया। पुरुषों के साका और स्त्रियों ने जौहर किया। राजा जयपाल ने तो स्वयं को ही बलिदान कर दिया।

परन्तु आज उन तमाम बलिदानों का उपहास तमाम नए विमर्शों में उड़ाया जाता है। राजा जयपाल की लाल हवेली के विषय में तब पता चल पाता है जब पाकिस्तान का कोई व्लॉगर यह कहता है कि यहाँ पर राजा जयपाल ने “जौहर” कर लिया था। वह उस हवेली के तहखाने में जब लेकर जाता है, तो एक टीस उठती है, वह छत पर जाता है और छत से मंजर दिखाता है। क्या शान रही होगी! वह वैभव को लूटकर भी कंगाल हुए बैठे हैं और हमें अपने लुटे हुए वैभव का पता ही नहीं है!
फिर एक दिन कोई ऐसा ही व्लॉग सामने आएगा और फिर ऐसा ही इतिहास दिखाई देगा, फिर किलों के साए में बनी हुई दुकानें दिखाई देंगी और उनके बीच सुनसान वह खंडहर जिनमें वैभव ही नहीं दर्द भी दफ़न हुआ पड़ा है, जो रह रह कर सामने आता है!

मैं आभारी हूँ उस व्लॉगर की, जिसने मुझे राजा जयपाल से मिलवाया और जिसने यह भी कहा कि भारत ने आक्रमणकारियों का सामना जमकर किया है!

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