फक हिंदुत्व, हिन्दू राष्ट्र मुर्दाबाद, हिंदुत्व की कब्र खुदेगी, हम राजनीतिक हिंदुत्व के खिलाफ हैं!” यह सब वह नारे हैं जो पिछले कई दिनों से मीडिया का हिस्सा बने हुए हैं और यह नारे लगाने वाले कोई और नहीं बल्कि हिन्दू लडकियां ही हैं। क्या यह लडकियों के साथ हिंदुत्व ने कुछ गलत किया है? क्या हिन्दू लड़की होने के नाते उन्हें किसी भेदभाव का सामना करना पड़ा है? तो उत्तर आएगा नहीं। नहीं इसलिए क्योंकि अधिकतर लड़कियां बड़े संभ्रांत घरानों की लडकियां हैं तथा उनका बचपन भी काफी खुशहाली में बीता होगा यह उनकी बातों से भी स्पष्ट होता है। हाल ही में उस हिन्दू लड़की को भी नहीं भूलना चाहिए जिसने ओवैसी की रैली में जाकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए।
स्वरा भास्कर, दीपिका पादुकोण, सोनम कपूर जैसी स्त्रियाँ जिनका जीवन काफी संपन्न है फिर भी यह लोग भारत की मूल अवधारणा का विरोध करती नजर आती हैं। फिल्मों में विशेषकर भारतीयता का विरोध होता है इसके साथ ही भारतीय प्रतीकों का उपहास उड़ाया जाता है।
इन दिनों कई बार मन में यह प्रश्न आता है कि आखिर वह क्या कारण है कि जो हमारी बच्चियां देश तोड़ने वाली एवं धर्म विरोध के नाम पर देश विरोधी गतिविधियों का हिस्सा बन जाती हैं? क्या कारण है कि जब उन्हें देश के लिए खड़ा होना चाहिए होता है वह देश के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती हैं? क्या कारण है कि जब उन्हें समलैंगिकता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर भारतीय खुले दृष्टिकोण की सराहना करनी चाहिए, और यह बताना चाहिए कि भारतीय दृष्टिकोण में ही इन सम्बन्धों को बुरी दृष्टि से नहीं देखा जाता है, वह लडकियां यह साबित करने लग जाती हैं कि भारतीय दृष्टिकोण ही सबसे पिछड़ा है! यह हाल ही में हुए कई आन्दोलनों में विशेषकर सीएए के विरोध में हुए आन्दोलनों में यह बात उभर कर आई है। ऐसा आखिर क्यों होता है?
इस क्यों के उत्तर में वैसे तो कई उत्तर मिलेंगे, परन्तु मुझे जो सबसे बड़ा कारण नजर आता है वह है इतिहास से विमुखता! जी हाँ, स्त्री इतिहास को जानबूझकर विकृत करने वाले लोग सबसे बड़ा कारण हैं, भारतीय स्त्रियों के इतिहास को न दिखाना एवं उसकी जानकारी न होना।
वैदिक काल में भारतीय स्त्रियों की स्थिति:
आम तौर पर यह देखा गया है कि मनुस्मृति के एक दो श्लोकों को आधार मानते हुए वृहद स्तर पर धारणा बनाई गयी कि भारतीय स्त्रियाँ बहुत ही पिछड़ी हुआ करती थीं। उन्हें जरा भी अधिकार नहीं थे एवं उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त करने की जाती थी आदि आदि! एवं उसी आधार पर एक बड़े वामपंथी साहित्य की शुरुआत हुई जिसमें कुछ कविताएँ बहुत ही लोकप्रिय हुईं जैसे
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आंचन में है दूध और आँखों में पानी!”
तथा
“मैं नीर भरी दुःख की बदली,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!”
साहित्य में कक्षा 9 से कक्षा 12 तक जो कवितायेँ हमारी लड़कियों को पढ़ाई जाती हैं, उनमें स्त्री का एक स्वतंत्र पहलू नहीं दिखाया जाता है। स्त्री का स्वतंत्र साहित्य तो है ही नहीं!
स्त्रियों की लड़ाई दो तरफ़ा रही है। एक तरफ तो उन्हें उस पूरी मानसिकता से लड़ना पड़ा है जो उन्हें दोयम दर्जे का मानती थी और दूसरा षड्यंत्र था वामपंथियों द्वारा उनकी कहानियों को जानबूझ कर दबाए रखना ताकि स्त्रियाँ इसी अबला मानसिकता का शिकार बनी रहें एवं इस प्रकार पूरी भारतीय संस्कृति को बदनाम किया जा सके।
यदि वैदिक युग की स्त्रियों पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वेदों में कई ऋषिकाओं ने कई सूक्तों की रचना की है, जिनमें अदिति से लेकर विश्ववारा एवं रोमशा, सूर्या सावित्री आदि ऋषिकाएं हैं जिनके नाम से आज की लडकियां वंचित हैं, उनके लिए भारतीय स्त्रियों में केवल सीता और द्रौपदी हैं और सीता को वह बेचारा और अबला मानती हैं। जब से राम पर कथित रूप से प्रश्न उठने आरम्भ हुए तब से सीता का चरित्र और निर्बल होता चला गया। लड़कियों की नज़र में सीता एक निर्बल स्त्री थी जिसे उनके पति ने निकाल दिया एवं उसने अंतत: आत्महत्या कर ली!
यह जो लड़कियों में फिल्मों तथा सीरियल आदि से विमर्श उत्पन्न हुआ है उसने इन्हें हमारी पूरी संस्कृति से दूर कर दिया है।
जबकि सीता से बढ़कर आज तक पूरे विश्व के इतिहास में कोई भी मजबूत स्त्री नहीं हुई, जिसने विश्वविजेता पति तथा न्यायप्रिय पिता के घर न जाकर ऋषि के आश्रम में शरण ली एवं अपने पुत्रों को तत्कालीन सर्वोत्तन शिक्षा देने के साथ ही स्वाभिमान की शिक्षा दी। परन्तु तथाकथित स्त्री वादियों के लिए इसलिए सीता स्वतंत्र स्त्री नहीं है क्योंकि उसने अपने पुत्रों को अपने पिता के विरुद्ध खड़ा नहीं होना सिखाया। यदि सीता ने अपने पुत्रों के मन में उनके पिता अर्थात श्री राम के प्रति विषवमन किया होता एवं समाज की व्यवस्था से इतर जाने की शिक्षा दी होती तो सीता आज की स्त्री वादियों की आदर्श होती, पंरतु ऐसा नहीं है।
यदि सावित्री सत्यवान को बीमार छोड़कर चली गयी होती और अपने निजी जीवन को दाम्पत्त्य पर प्राथमिकता दी होती तो सावित्री आज आधुनिक स्त्रियों के लिए आदर्श होती।
समस्या यह नहीं कि सावित्री को उनके विमर्श ने पिछड़ा घोषित किया, समस्या यह है कि एक आधुनिक, अपने आप प्रेम और विवाह और फिर अपने पति की बीमारी को ठीक करने वाली मजबूत स्त्री को आपने वट सावित्री तक ही क्यों समेट दिया? हर स्त्री सावित्री चाहिए, मगर पति का साथ केवल वट सावित्री की पूजा करके नहीं मिलता? जो दाम्पत्त्य का सबसे आदर्श रूप था, उसे आडम्बर क्यों बना दिया गया और आज जिस भूमि पर सावित्री और कैकई जैसी स्वतंत्र निर्णय लेने वाली स्त्रियों ने जन्म लिया, वही धरती प्यार के आदर्श के रूप में सोहनी महिवाल का नाम सुनती है।
सीता और सावित्री का देश कहने वालों से शिकायत नहीं है, शिकायत है सीता और सावित्री को आडम्बर में समेट देने वाले अपने लेखकों से,।
मानवीय रूप में सावित्री का प्रेम क्यों नहीं आया, क्यों हिंदी में हमें इस तरह से सावित्री पर कोई कविता नहीं मिलती जो 21 वर्षीय तोरू दत्ता ने अंग्रेजी में लिख दी थी,
She saw some youths on sport intent,
Sons of the hermits, and their peers,
And one among them tall and lithe
Royal in port,—on whom the years
Consenting, shed a grace so blithe,
So frank and noble, that the eye
Was loth to quit that sun-browned face;
She looked and looked,—then gave a sigh,
And slackened suddenly her pace।
What was the meaning—was it love?
Love at first sight, as poets sing,
तोरू दत्ता की यह कविता लन्दन में पढ़ाई जाती है, तोरू दत्ता की अंग्रेजी कविताएँ भारतीयता की भावना से ओतप्रोत हैं, और उस बच्ची ने हर चरित्र को मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया, आडम्बर के साथ नहीं!
आज हमारी नन्ही लडकियां सीता और सावित्री या फिर उर्मिला का रोता हुआ रूप पढ़ रही हैं! कलपती हुई स्त्रियाँ, जबकि यह सभी स्वतंत्र निर्णय लेने वाली स्त्रियाँ थीं। क्या होगा यदि स्त्रियों के सामने मजबूत स्त्रियों का रोता हुआ रूप ही हमेशा प्रस्तुत किया जाएगा! वह भारतीय स्त्रियों के प्रति हमेशा ही ऐसी दृष्टि रखेंगी जिनके पास जरा भी अधिकार नहीं थे।
इसी प्रकार एक षड्यंत्र और खेला जा रहा है सीता और सावित्री जैसी मजबूत स्त्रियों को कमज़ोर साबित कर द्रौपदी को मजबूत स्त्री साबित कर इन चरित्रों में आपस में संघर्ष कराना, जैसे कबीरदास और तुलसी दास के साथ किया जा चुका है एवं सफल भी रहा है। स्त्री चरित्रों में यह अभी अपने प्रयासों में सफल नहीं हो पाए हैं।
वामपंथियों का मूल चरित्र है विवाद उत्पन्न करना एवं फिर उस विवाद का हल अपने अनुसार खोजना। पहले उन्होंने विवाद खोजा, वेदों को झूठ साबित किया, और जब वेदों को ही मिथ्या साबित कर दिया तो उसमें लिखने वाली स्त्रियाँ कैसे वास्तविक हो सकती है। अब इस पर विवाद कि क्या वह स्त्रियाँ हैं भी या नहीं?
विवादों को लच्छों में पकाकर खाना वामपंथियों की आदत है। मनुस्मृति के कुछ श्लोकों से आपत्ति हो सकती है, एवं कई घोर आपत्तिजनक हैं भी, परन्तु यह भी बात सत्य है कि यह संहिताएँ और स्मृतियां एक निश्चित समय के लिए होती थीं, एवं काल तथा परिस्थिति के अनुसार उनमें पर्याप्त परिवर्तन हो सकता था। यह बात वामपंथी बहुत ही शातिरता से छिपा जाते हैं तथा मनुस्मृति को आधार बनाकर देश तोड़ने की चाल चल जाते हैं। यह बात वह नहीं बताते कि मनु स्मृति के अतिरिक्त और भी कई स्मृतियाँ हैं जिन्होनें अपने अपने काल खंड के अनुसार नियम बनाए।
वैदिक काल की मुख्य स्त्रियों पर नज़र डालने से पहले भी यदि हम जीवन और उत्पत्ति की बात करें तो पाएंगे कि एक यह धारणा कि स्त्री इसलिए पुरुष से कमतर है, क्योंकि भगवान से उसे पुरुष की पसली से बनाया है और उसका मुख्य कार्य पति को प्रसन्न करना है, पूरी तरह बाइबिल की अवधारणा है। इसी अवधारणा पर जो स्त्रीवाद है, उसी आधार पर बनी कवितायेँ हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं, जबकि मनुस्मृति के अनुसार जब सृष्टि का सृजन हुआ एवं जब भगवान ने सृष्टि को आगे बढ़ाने के लिए विचार किया तो ब्रह्म जो कि स्वयं ही एक दाने के रूप में था उसने स्वयं अर्धनारीश्वर का रूप लिया। मनुस्मृति में लिखा है
द्विधा कृत्वा-अत्मनो देहम अर्धेन पुरुषो अभवत, अर्धेन नारी तस्यां स विराजम असृजत प्रभु: 1-32 मनुस्मृति
अर्थात अपनी स्वयं की देह को विभाजित करते समय प्रभु आधे पुरुष एवं आधे नारी में परिवर्तित हो गए।
जबकि बाइबिल में लिखा है कि
पुरुष और स्त्री को परमात्मा ने अपनी छवि से बनाया, अर्थात पहले पुरुष को बनाया और फिर उसके लिए स्त्री को बनाया,
हमारे धर्म में मनुष्य को स्वर्ग से बाहर किसी स्त्री के कारण नहीं होना पड़ा, परन्तु जहां से कथित स्त्री विमर्श उत्पन्न होकर पूरी दुनिया में फैला वहां के धार्मिक ग्रन्थ में यह लिखा है सांप के बहकावे में आकर स्त्री ने जो फल चखा और पुरुष को चखने को विवश किया, उस कारण पुरुष को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया गया।
एवं जो प्रसव है उसकी पीड़ा शापित है।
जब इन विचारों के आधार पर उत्पन्न हुआ वैश्विक स्त्रीवाद भारत आया तो स्त्री के साथ वीरता और श्रद्धा वाला भाव विलोपित हो कर उसे मात्र एक ऐसे जीव के रूप में देखा जाने लगा जो पूरी मानवजाति के प्रति दोषी है।
जब इस विचार के साथ उत्पन्न कविताएँ थीं तो जाहिर है कि उन्होंने भारतीय स्त्रियों को भी इसी दृष्टि से देखा और भारत की एक समृद्ध स्त्री विचार की परम्परा को समझा नहीं!
वैदिक काल में कम से कम 25-30 ऋषिकाओं का उल्लेख है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है रोमशा! रोमशा पहली ऐसी स्त्री थी जिसने इस विमर्श को आरम्भ किया कि स्त्री के सौन्दर्य से इतर उसकी बुद्धि और गुण के आधार पर आंकलन किया जाना चाहिए।

ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के सातवें मन्त्र की रचयिता रोमशा लिखती हैं
“उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।
सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥“
रोमशा को स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर मानते हुए सुमन राजे अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का आधा इतिहास में, लिखती हैं कि जिस प्रकार रोमशा ने अपने पति से कहा है कि वह उनके रूप के स्थान पर गुणों पर ध्यान दें, वह स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर है।
इसी प्रकार जब हम आध्यात्म के क्षेत्र में देखते हैं तो पाते हैं कि आध्यात्मिकता के सिद्धांत गढ़ने वाली स्त्रियों में सुलभा सन्यासिन का नाम ऐसी स्त्री के रूप में लिया जा सकता है जिसने तब अविवाहित होकर कैरियर पर ध्यान देना चुना जब विश्व में कई सभ्यताएं आँखें मूंदे हुई थीं।
संख्या ऐसी बहुत है, पंरतु प्रश्न यह है कि इन स्त्रियों की कथा हमारी स्त्रियों तक किस रूप में पहुँच रही है। सूर्या सावित्री नामक ऋषिका के मन्त्र हमारे यहाँ विवाह में पढ़े जाते हैं, यह ऋग्वेद में हैं। सूर्या सावित्री सूर्य की पुत्री मानी जाती हैं और उनके विवाह को लेकर यह सन्दर्भ है। कुछ के अनुसार उनका विवाह उनके पिता ने सोम के साथ तय किया था परन्तु उन्होंने अपने लिए अपने सहपाठी पूषा का चयन किया था। और उनका विवाह पूषा के साथ हुआ था। यह कथा अद्भुत कथा है, कि एक स्त्री जो अपने पिता के चुने हुए व्यक्ति से विवाह से इंकार कर रही है और उसके बाद भी उसके रचे हुए मन्त्र आज तक विवाह में पढ़े जा रहे हैं।
क्यों लैला मजनू की कहानी तो आज प्रेम की कहानी बन गयी परन्तु प्रेम के साथ सम्मान की यह कथा आज तक अज्ञात है और इन लड़कियों तक पहुँची भी तो कथित क्रांतिकारी कवियों द्वारा भारतीय पुरुषों का विरोध बनकर?
जब हम आज इस प्रश्न के मुहाने पर बैठे हैं कि हमारी लड़कियां सब कुछ जानते हुए भी पिछड़ी वामपंथी और इस्लामी तहजीब की तरफ क्यों मुड़ जाती हैं तो एक प्रश्न हमें स्वयं से यह पूछना होगा कि जो हमारी प्रेम कहानियां थीं उन्हें हम क्यों न लिख सके? क्यों हम उन्हें बेच नहीं पाए और क्यों हम भारतीय प्रेम को स्थापित नहीं कर पाए!
क्यों हमने शिव-पार्वती, राम-सीता की कहानी में से प्रेम को उस रूप में प्रस्तुत नहीं किया कि युवा पीढ़ी लैला मजनू को प्रेम का पर्याय मानने के स्थान पर शिव पार्वती को प्रेम का मापदंड माने!
जब स्त्री की स्वतंत्रता और स्वतंत्र निर्णय की बात आए तो वह अक्क महादेवी और मीरा बाई को अपना उदाहरण माने! स्त्री विमर्श में सूर्या सावित्री और रोमशा को माने न कि सिमोन को!
पश्चिम की आयातित छतरी के नीचे से भारतीय स्त्रियों की कहानी को नहीं समझा जा सकता है और यदि कोई समझने का प्रयास करेगा तो वह इसी तरह भटक कर वहीं चला जाएगा। राम और सीता के प्रेम को समझे बिना जिस प्रकार कथित स्त्रीवाद और स्त्रीवादी लेखिकाओं ने जो तांडव मचाया है वह अपने आप में भयावह है। प्रश्न यह है कि हमने सिवाय आदर्श गढ़ने के क्या किया? जिस वैकल्पिक विमर्श को आधार बनाकर वामपंथियों ने हमारे नायक और नायिकाओं की कथाओं के साथ खेल किया, उसका सामना करने के लिए हमने क्या किया? हम तो बचा भी नहीं पाए!
सूर्या सावित्री पर हम केवल वेदों के आधार पर एक आधा लेख लिख कर रह गए, मगर एक क्रांतिकारी कविता देखिये, जो पूरे के पूरे भारतीय समाज को ही दोषी ठहरा रही है।
“क्या बस इसीलिए विवाह की वेदी के आगे
वचन हारती स्त्रियों को नहीं बताया गया,
उसके बारे में कि कहीं उनमें से कोई
या कई पिता द्वारा चयनित वर से
न कर दें विवाह करने से इंकार,
और कहीं नहीं पिता, पसंद भी मेरी होगी
और सूर्या सावित्री की तरह शर्तें भी मेरी!”
जो नायिकाएं मूल्यों को संरक्षित करके समाज को एक करने के लिए होनी चाहिए थीं, उन्हें अपने अनुसार तोड़ मरोड़ कर पूरी व्यवस्था के प्रति विद्रोह पैदा किया गया।
और लड़कियों को ऐसी कविताओं से प्रेम है, जब वह ऐसी कविताओं से प्रेम करती हैं, तो वह फिर उस कवि की बाकी कविताओं से भी प्रेम करने लगती हैं। इसकी काट के लिए हमें अपनी नायिकाओं को अपने रूप में उनके तरीके से प्रस्तुत करना ही होगा!
एक और बात हैं जो गौर करने योग्य है कि हमें प्रेम के मामले में उदात्त दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। आज हम सुदूर गंधार को अपना कहने से हिचकते हैं, जबकि यही वह भूमि थी जहाँ से पूरे विश्व ने प्रेम के सबसे उन्मुक्त रूप को समझा। गन्धर्व विवाह, अर्थात जिस विवाह में मात्र स्त्री और पुरुष की सहमति हो, वह विवाह मान्य होगा! जबकि ऐसी कोई भी व्यवस्था हमें न ही ईसाई धर्म में दिखती है और न ही इस्लाम में।
इस्लाम तो जब से गंधार में आया तब से यह स्वयं में एक शोध का विषय होगा कि वहां से मिलन की कहानियों के स्थान पर प्रेम में मृत्यु अर्थात लैला मजनू की कहानियाँ सामने आने लगीं। हम यह समझाने में क्यों विफल हुए कि एक गन्धर्व विवाह से उत्पन्न बालक के नाम पर ही इस देश का नाम भारत है।
हमें हर स्त्री की प्रेम कहानी को आज के रूप में ढालकर लिखना ही होगा, सीता, सावित्री, उर्मिला, कुंती, द्रौपदी आदि सभी को आज के हिसाब से अपने हिसाब से विमर्श के रूप में ढालना ही होगा।
वस्त्रों की उन्मुक्तता
एक और जो गलत अवधारणा है वह है वस्त्रों के नाम पर लड़कियों को टोकना! वामपंथ उन्हें सारे बंधन तोड़ने के लिए उकसाता है और उनमें सबसे पहला होता है वस्त्रों से आज़ादी! जबकि ऐसी किसी आज़ादी की जरूरत उन्हें है ही नहीं! हमारे यहाँ के प्राचीन परिधान देखने चाहिए! वस्त्रों के नाम पर जितनी स्वतंत्रता भारत में थी उतनी कहीं नहीं थी। पर्दा प्रथा का आगमन कब से हुआ, यह बच्चों को समझाना होगा। वाम उन्हें फंसाता है, और अंतत: वह बुर्के में जाकर फंसती हैं। वाम ने जिस तरह से भारतीय स्त्रियों और अब तो देवियों के बारे में जो कहानियां गढ़ी हैं, उनसे सब उन्हें काल्पनिक लगता है और उन्हें लगता है कि भारत की स्त्रियों को हमेशा से घूँघट और पर्दों में रखा जाता था, और उन्हें जिन्दा जलाया जाता था, पति की मृत्यु पर या फिर विधवा विवाह नहीं अनुमत था आदि आदि! स्त्री को सदियों से परदे में रखा गया है, यह बहुत ही आम धारणा है। जबकि यह तथ्य स्थापित है कि बाहर से आए अंग्रेजों ने हमारे वनवासियों की संस्कृति को बहुत हैरानी से इसीलिए देखा था क्योंकि वहां पर न केवल स्त्री संबंधों के मामले में बल्कि वस्त्रों के मामले में भी मुक्त थी।
The-Oraons-of-Chota-Nagpur नामक पुस्तक में जिसे 1915 में प्रकाशित किया गया था, उसमें उराऊं लोगों के बारे में स्पष्ट लिखा है कि उस जनजाति की स्त्रियाँ शरीर में ऊपर की तरफ कुछ नहीं पहनती थीं। और लिखने वाले ने यह भी हैरानी व्यक्त की है कि फिर भी अपराध नहीं थे स्त्रियों के प्रति! यही नहीं जब पुरुष शिकार के लिए जाते थे तो स्त्रियाँ ही गाँव की सारी व्यवस्थाएं सम्हालती थीं। जब इस प्रकार की शोधपरक पुस्तकें पढ़ी जाती हैं जो यद्यपि किसी कारण वश ही लिखवाई गईं जिसमें अंत में उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया कि जैसे जैसे वह ईसाई होते जा रहे हैं, वैसे वैसे वह सभ्य होते जा रहे हैं। यह विमर्श हमारी तरफ से क्यों नहीं हुआ कि जो लोग स्त्री को आदर देते थे वह असभ्य हो गए और जिन्होनें आते ही स्त्री को काले और सफ़ेद लबादे में ढाक दिया वह सभ्य?
हमने अपने वनवासियों को अंग्रेजों की लिखी पुस्तकों को आधार ग्रन्थ माना और अपने उन वनवासियों को अपने से अलग घोषित कर दिया जिनके दोहरे संघर्ष थे।
वस्त्रों की उन्मुक्तता की सीमा के विषय में यदि समझाना है तो अंतत: हमें वापस आना ही होगा कि जब हमारे यहाँ स्त्रियों में नियोग प्रथा थी, जब वस्त्रों के प्रति भी सीमाएं नहीं थीं तब भी हमारे यहाँ स्त्री का सम्मान था।
भारत में स्त्रियों को चुड़ैल माना जाता था
यह एक सबसे बड़ा झूठ है जो बार बार हमारे यहाँ की लड़कियों से बोला जाता है। जबकि हकीकत है कि भारत में तो चुड़ैल नाम की चिड़िया का नाम किसी को पता ही नहीं था और स्त्री को चुड़ैल मानना, यह तो पश्चिम से आया।
यहाँ मैं अपना एक पुराना लेख ज्यों का त्यों दे रही हूँ:
स्त्री बुद्ध के समय प्रथम प्रचारक बनी। पुरुषों के साथ कदमताल करते हुए न जाने कितने देशों की यात्रा की। अपने बुद्ध का सन्देश लेकर गयी।
उससे पहले सूर्या सावित्री ने रचे थे विवाह के सूक्त!
हमने स्त्री के ब्रह्मचारिणी रूप की भी पूजा की। स्त्री शक्ति थी। उस शक्ति को सनातन ने पहचाना, उस शक्ति को बुद्ध ने पहचाना, उस शक्ति को जैन धर्म में पहचाना। सभी ने सम्मान दिया। स्त्री को इतना स्वतंत्र किया कि वह प्रश्न उठा सकें। वह एक विवाह से संतुष्ट नहीं तो दूसरा कर सकें और उसके उपरान्त भी यदि संतुष्ट नहीं है तो वह बौद्ध धर्म में दीक्षा ले कर सन्यासी बन सकें या फिर किसी और सम्प्रदाय की भी दीक्षा ले लें। मीरा ने कृष्ण को मान लिया पति तो मान ही लिया। इधर पंद्रहवी शताब्दी में मीरा कृष्ण को अपना पति मानकर सम्मानित हो सकती थीं, वह रैदास को अपना गुरु मान सकती थीं। और उधर हमें पिछड़ा बताने वाले गोरे लोग पंद्रहवीं शताब्दी तक स्त्रियों को चुड़ैल और डायन मानते थे।
इधर हमारे यहाँ रजिया सुल्ताना को तेरहवीं शताब्दी में ही उसके पिता द्वारा गद्दी सौंप दी जाती थी और उधर सुदूर पश्चिम में जो लोग हमें हमारे परिधानों से पिछड़ा साबित करते थे उनके यहाँ बारहवीं शताब्दी में स्त्रियों को स्त्री ही नहीं माना जाता था, वह मदर मेरी और पुरुषों को स्वर्ग से धकेलने वाली के बीच फंसी थी। दसवी शताब्दी तक चर्चों में ननों को पढने लिखने का अधिकार नहीं था। जहां भारत में मुगलों की शहजादियाँ, राजपूतों की राजकुमारियां और साधारण लड़कियों को भी पढने का अधिकार था, वहीं हमें हर कदम पर पिछड़ा बताने वालों ने अपने यहाँ की स्त्रियों को चर्च तक में पिछड़ा रखा। नन अपनी स्मृतियों से ही याद करती थीं, किताबों से नहीं।
और एक बात, भारत में स्त्रियों को डायन बताने वाली परम्परा कब से आरम्भ हुई? मुग़ल काल तक हमें स्त्री को चुड़ैल या डायन की कहानियां नहीं मिलती हैं। खोजिये। जब अंग्रेजों ने संस्कृति का अनुवाद किया तो उन्होंने हमारी छोटी छोटी कुरीतियों को, जो कई आक्रमण के कारण समाज में उत्पन्न हो गयी थीं, उन्हें बडाकर दिखाया और अपनी कुरीतियों को जिसने हजारों की जानें लीं और जिसका नामोनिशान तक भारत में अंग्रेजों के आने से पहले तक नहीं था उसे छिपा लिया। जहां तक मुझे लगता है।
स्त्री के सम्बन्ध में पश्चिम ने एशिया पर अपने सिद्धांतों का गलत अनुवाद थोपा। रजिया सुल्ताना, मीरा बाई, जीजाबाई, रोशन आरा, जहां आरा, यह सब स्त्रियाँ भारत में ही थीं और खुलकर अपने मत रखने वालीं थीं। खुलकर लिखने पढने वाली थीं, सत्ता में हस्तक्षेप करने वाली थीं। यह मैं केवल मध्यकालीन स्त्रियों की बात कर रही हूँ। स्त्रियों में डायन का आना कब से आरम्भ हुआ, भारत में वनवासियों में भी स्त्रियों को डायन कब से कहना आरम्भ हुआ, इस विषय में शोध होना चाहिए।
भारत में नहीं बल्कि पश्चिम में विच हंटिंग नामक खेल हुआ करता था। और इस खेल में उन स्त्रियों की पहचान की जाती थी जिनका कोई होता नहीं था। उन पर आरोप लगाया जाता था। और फिर उन्हें घेर कर मारा जाता था। जिस समय यूरोप में यह काला दौर चल रहा था, उन दिनों भारत भी मुगलों के आक्रमण से गुजर रहा था, परन्तु भारत में स्त्रियाँ चाहे वह हिन्दू हों या मुसलमान इस संक्रमण काल से गुजरते हुए भी समाज और राजनीति में अपना स्थान उच्च रखे हुए थीं। वह कोटारानी के रूप में अपने पूरे प्रदेश की रक्षा किए हुए थी। यह कोई साधारण स्त्री नहीं थी
इतिहासकारों के मुताबिक़ यूरोप में जादूटोने के चक्कर में जहां चालीस हज़ार से लेकर एक लाख हत्याएं हुईं वहीं उनका यह भी कहना है कि यह संख्या तीन गुना तक अधिक हो सकती है।
इतिहासकारों का यह भी कहना है कि हालांकि जादू टोने के चक्कर में पुरुषों की भी जान गयी मगर यह भी सच है कि इनमें एक तिहाई से अधिक स्त्रियाँ थीं।
और इन्होनें हमसे आकर कहा कि तुम्हारे यहाँ औरतों को अधिकार नहीं! या यह कहा जाए कि अंग्रेजों ने आकर ही हमें और पिछड़ा किया। पश्चिम के नाम पर स्त्रियों को केवल देह और कपड़ों तक सीमित कर दिया। स्त्री की सोच को सीमित किया, और जहां वह पहले सत्ता को साधती थी, बाद में बाज़ार उसे साधने लगा।
भारत में साडी एवं पारंपरिक परिधान पहनकर स्त्रियाँ युद्ध करने जाती थीं तो अंग्रेजों को वाकई समझ नहीं आता होगा कि उनके सामने कौन है? स्त्री पढ़ कर शास्त्रार्थ कर सकती है, सत्ता बदलने में योगदान कर सकती है, यह सब उनकी सोच से परे था। यह अंग्रेज ही थे जिन्होनें आपकी संस्कृति के मूल ढाँचे पर प्रहार किया और गुलामी की भावना आपके भीतर भरी। भारतीय स्त्री कभी गुलाम नहीं थी। यह अनूदित गुलामी थी,और आप सोचते हैं कि अनुवाद एक छोटी और साधारण कला है? जो भारत मुग़ल काल तक स्त्री को लेकर सम्मानजनक नजरिया अपनाए था उसे उन्होंने पिछड़ा अनूदित कर दिया और जिस समाज ने स्त्री को डायन बनाकर सबसे पहले प्रताड़ित किया उसे संभ्रांत और सभ्य घोषित कर दिया।

और हम आज तक वही ढपली बजा रहे हैं
उर्दू को प्यार की भाषा बनाकर पेश करना
एक जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है, जिसके कारण लडकियां इस्लाम की तरफ आकर्षित होती हैं वह है उर्दू को प्यार की भाषा बनाकर पेश करना और कथित प्यार की नज्में आदि उर्दू में लिखी गईं जो कथित रूप से अमर हो गईं, उन शायरों को प्यार का मसीहा माना जाने लगा जिन्होनें प्यार की ग़ज़लें लिखीं, जबकि जो संस्कृत निष्ठ हिंदी में लिखी गयी कवितायेँ थीं उन्हें जानबूझकर अनदेखा किया गया। आज भी जश्न ए रेखता जैसे आयोजनों में भारी भीड़ होती है, और इश्क की जुबां उर्दू को सुनने के लिए लाखों की संख्या में लडकियां जाती हैं। जब वह अमन और प्यार जैसे चाशनी में लिपटे हुए शब्दों को सुनकर आएंगी तो उनके दिमाग पर क्या असर होगा?
पहले प्यार और मोहब्बत की नज्में होती हैं जैसे
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
बशीर बद्र
अब उर्दू का आधार ही फारसी है तो शब्द भी वहीं से आए हैं, और इस प्रकार की बगावत करने वाले एक ही मज़हब के हैं तो उनकी नज्मों में खुदा, अल्लाह जैसे शब्दों का आनाजाना जाहिर है। जैसे अमीर मीनाई की पंक्तियाँ ही देखें तो
कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
जबकि बगावती ग़ज़ल दुष्यंत ने भी कम नहीं लिखीं, बल्कि भारतीय भूमि पर दुष्यंत से बड़ा क्रांतिकारी ग़ज़ल लिखने वाला हुआ भी नहीं है, मगर पास दुष्यंत की ग़ज़लें रूमानी क्रान्ति पैदा नहीं करती। वह रोटी की बात करती है, जरा देखिये एक बानगी
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।
दुष्यंत की यह पंक्तियाँ किसी भी आन्दोलन के लिए आवाज़ हो सकती हैं,
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मगर दुष्यंत हल की बात करते हैं, अराजकता की नहीं, इसीलिए उन्हें अनदेखा किया जाता है, वह हिमालय की बात करते हैं, वह गंगा का प्रतीक लेते हैं, जो अब आउटडेटेड है। वह कहते हैं
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मगर दुष्यंत को एक तरफ कर दिया जाता है क्योंकि वह यह नहीं कहते कि बुतों को गिराया जाए!
वह झूठी मोहब्बत का दिलासा नहीं देते। वह अदावत में भी भारतीयता जोड़े रहते हैं, जबकि जो अधिकतर यह उर्दू शायरी है जिसमें सारे प्रतीक और बिम्ब एक मज़हब विशेष के हैं, जो जाहिर है कि अपने अलावा हर मजहब के खिलाफ हैं, वह युवा पीढ़ी पर असर डालता है।
लडकियां क्या लड़के दोनों ही प्यार मोहब्बत के जाल में फंसते हुए खुदा खुदा करने लगते हैं कि खुदा हो या भगवान एक ही है। और जैसे ही यह भावना भीतर आती है वैसे ही वह संस्कृत को उर्दू के बगल में लाकर खड़ी कर देती हैं। वह हमारी देव वाणी को उस भाषा की सहोदरी बना देती है जिसने रूप भले ही भारत से लिया मगर बुनियाद यहाँ की नहीं है।
और कई शेयर तो ऐसे हैं जो सीधे सीधे विद्रोह के बारे में बात करते हैं, मगर वह इस तरह रूमानियत में लपेट कर बात करते हैं कि लड़कियों को जरा भी बुरा नहीं लगता। जैसे साहिर लुधियानवी का यह शेर
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
इसमें जो जुल्म है वह जुल्म देखना चाहिए कि यह जुल्म कौन कर रहा है? एक और इतिहास रहा है मुस्लिम क्रांतिकारी शायरों का कि इन्होनें अपने मज़हब की कट्टरता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई है! और यदि इक्का दुक्का उठाई भी हों तो उन्हें अब याद नहीं करता कोई। जब वह लोग ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने की बात करते है, तो वह यह नहीं कहते कि जुल्मी कौन है? जुल्मी वह है जो बुत बनाता है, जुल्मी वह है जो उनकी स्त्रियों के माथे से हिजाब उतारने की कोशिश करता है, जुल्मी वह नहीं है जो उनकी औरतों को काले बुर्के में दबाकर रखता है और उन्हें पूरी ज़िन्दगी तीन तलाक के साए में घिरे रहने के लिए विवश करता है। वह बहुत ही नफासत से हमारी लड़कियों को हमारे खिलाफ खड़ा कर देते हैं। हमें उनके अनुसार जुल्मी और ज़ुल्म की अवधारणा समझनी होगी।
अब लड़कियों के दिमाग में बैठ जाता है कि यह तो अमनपसंद लोग हैं, प्यार मोहब्बत की बातें करने वाले हैं, यह लोग बुरे कैसे हो सकते हैं, जो यह कह रहे हैं, वह सच ही है, और ऐसे में वह उन भ्रामक बातों का शिकार होती हैं जो पूरी तरह से उनकी संस्कृति के विरोध में खडी होती हैं जैसे हफ़ीज़ जालंधरी की यह पंक्तियाँ:
‘हफ़ीज़’ अपनी बोली मोहब्बत की बोली
न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी
इसमें बहुत ही चतुराई से जिस भाषा में लिखा गया है उसे मोहब्बत की बोली बनाकर पेश कर दिया गया और बाकी सब को?
ऐसा नहीं है कि सभी ग़ज़लें खराब हैं या प्यार मोहब्बत की बातें करना गलत है, पर जब आप एक ऐसी भाषा से प्यार करने लगते हैं और उसके गुलाम बन जाते हैं जिसके माध्यम से आप पर वार होता है और आपके धर्म पर वार होता है तो आप कई बार अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं। ‘
जब लिखा जाता है कि
बस नाम रहेगा अल्लाह का,
और इस नज़्म को क्रांतिकारी नज़्म बताया जाता है तो ऐसे में उसे गाने वाले समझ नहीं पाते कि गलती उनसे कहाँ हो रही है?
जब उनके दिमाग में पीर एक संत हो गया तो औरंगजेब को जिंदा पीर पढ़ा ही है, फिर शिवाजी उनके आदर्श कैसे होंगे? कैसे वह शम्भा जी के दर्द को महसूस कर पाएंगी और कैसे वह ताराबाई के नेतृत्व कौशल को समझ पाएंगी? सब कुछ शब्दों का खेल है। जब बुत गिराकर क्रान्ति होनी ही है तो कश्मीर के टूटे हुए मंदिरों पर कैसे रोएंगी? इस मीठे जहर को समझना ही होगा! अपने शब्द प्रयोग करने होंगे। संस्कृत निष्ठ तथा शब्दों की यात्रा पर अनवरत कार्य करना होगा! जब उसके सामने भिक्षुक का अर्थ beggar होगा तो वह भिक्षुक का आदर कैसे कर पाएगी?
हमने अपने विमर्श नहीं बनाए
सबसे महत्वपूर्ण है कि हमने अपने विमर्श नहीं बनाए! हमने यह तय नहीं किया कि हमें भी अपनी ही प्रेम कहानियां बेचनी है। जी हाँ बेचनी है और बेचनी है अपनी संस्कृति की महानता! आज जब सब कुछ बाज़ार के हाथों में है तो हम अंग्रेजों द्वारा किए गए अपने ग्रंथों के अनुवाद क्यों पढ़ें? क्यों हम थोपे हुए विमर्श के आधार पर गढ़ा हुआ स्त्री विमर्श पढ़ें? क्यों हम अपनी कहानियों को इस तरह से लिखते कि वह लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करे। 15 से 20 वर्ष की उम्र एक ऐसी उम्र होती है जिसमें लड़की को आदर्श नहीं अपितु आदर्श से कहीं परे उन्मुक्तता और स्वतंत्रता चाहिए होती है। उसके विचार बन रहे होते हैं। जब उसके यह विचार स्वतंत्रता आदि के बारे में बात करते हैं तब उसके सामने आता है उसके देश का कथित समाज सुधार वाला इतिहास जिसमें वह सती प्रथा, घूँघट, विधवा विवाह और कन्या शिक्षा आदि के बारे में पढ़ती है। और यह भी याद रहे कि सभी समाज सुधारकों ने केवल हिन्दू धर्म को ही चुना। लड़कियों को घूँघट की बुराई तो बताई जाती है मगर बुर्के की नहीं! सती प्रथा बताई जाती है मगर तीन तलाक नहीं! हिन्दुओं का बहुपत्नी रखना बताया जाता है मगर मुसलमानों का हलाला नहीं!
और उसके बाद उसके पास कोई भी आदर्श नहीं होता है जिसे वह आधार बनाकर लड़ सके, उसके पास ले दे कर दुर्गा माँ होती हैं जिसे बहुत आसानी से झूठ साबित कर दिया जाता है।
तो यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है और बच्ची को हमारी संस्कृति से दूर करने का षड्यंत्र उसके पैदा होते ही और उसे स्कूल भेजते ही शुरू हो जाता है। बड़ी होती बेटी पूछती है कि माँ सती माँ की तो हम पूजा करते हैं फिर सती प्रथा क्या थी? जौहर में केवल आग ही दिखाते, उसके पीछे के कारणों को हम बताने में हिचकते हैं। बच्चा मुग़ल काल के इतिहास को सबसे महान मानते हुए बड़ा होता है और लड़कियों पर तो मुगलई खाने से लेकर शेरो शायरी का इतना असर होता है कि वह आधी तो हमसे दूर स्कूल में रहते रहते ही हो जाती है,
अपना विमर्श, अपनी नायिकाएं हमें जन जन तक पहुंचानी होंगी, इससे पहले कि देर हो जाए!