क्या साहित्य में भी कोई वाद होता है या फिर वह हर वाद से मुक्त होता है? क्या यह राजनीति को दिशा देता है या फिर राजनीतिक दिशा से संचालित होता है? यह समस्त प्रश्न इसलिए उठते हैं क्योंकि यह कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यदि वह दर्पण है तो क्या दर्पण को यह अधिकार होता है कि वह किसी वाद के दृष्टिकोण से देखे या अपने प्रयोजन के साथ आगे बढ़े। उससे भी पूर्व प्रश्न यह उठता है कि साहित्य या कला के क्या प्रयोजन हैं?
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटक के उद्देश्य पर विचार करते हुए कहा कि यह धर्म, यश तथा आयु का साधक, कल्याणकारी, बुद्धिवर्धक एवं लोकोपदेशक है। इनके अतिरिक्त नाटक के प्रयोजन हैं – लोक का मनोरंजन करना, शोक पीड़ित, एवं परिश्रान्त जनों को विश्रांति प्रदान करना।
तो वहीं वामनाचार्य ने काव्य के दो प्रयोजन बताए हैं, दृष्ट और अदृष्ट। दृष्ट लौकिक कीर्ति, तो अदृष्ट आलौकिक फल के लिए है। रुद्रट ने काव्य प्रयोजन का विस्तार करते हुए छः तत्वों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार: काव्य का उद्देश्य है: यश की प्राप्ति (कवि के लिए), चरित्रनायकों के यश का विस्तार, कवि काव्य-सृष्टि कर चरित्र नायक के यश को फैलाता है, धन एवं असाधारण सुख तथा अभीष्ट कामनाओं की प्राप्ति, रोग मुक्ति, अभीष्ट वरदान की प्राप्ति, चतुर्वर्ग की सिद्धि ही काव्य रचना के उद्देश्य हैं।[1]
तुलसीदास काव्य प्रयोजन स्वांत: सुखाय ही लिखते हैं, परन्तु रीतिकालीन कवि भिखारीदास ने काव्य के प्रयोजनों पर लिखा है: कुछ सूर और तुलसी की भांति काव्य साधना के रूप में तपस्याओं का फल प्राप्त करते हैं, कुछ केशव और भूषण की भांति धन-संपत्ति प्राप्त करते हैं, कुछ को रसखान और रहीम की भांति केवल यश से ही प्रयोजन होता है, दास के विचार से कविता की चर्चा बुद्धिमान को सभी स्थानों पर सुखदायी सिद्ध होती है।[2]
आधुनिक काल में आचार्य माहावीर प्रसाद द्विवेदी ने काव्यानंद को काव्य का प्रयोजन बताया है, परंतु यह आनंद जन सामान्य के संबंध में हैं। वे नैतिक मूल्यों की स्थापना को काव्य का उद्देश्य स्वीकार करते हैं और आनंद और शिक्षा ही वे काव्य के प्रयोजन बताते हैं। “जिस कविता से जितना ही अधिक आनंद मिले, उतना ही ऊंचे दर्जे की समझना चाहिए।”
इसके साथ वे साहित्य को ऐसा बताते हैं, जिसके आंकलन से बहुदर्शिता और बुद्धि में विस्तार हो। उनके अनुसार साहित्य की परिभाषा बहुत ही व्यापक है और समाज कल्याण की भावना साहित्य में मुख्य होनी चाहिए। उनके अनुसार “साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आंकलन से बहुदर्शिता बढ़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, ह्रदय में एक बार संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं और आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा को पहुँच जाए। मनोरंजन मात्र के लिए प्रस्तुत किए गए साहित्य से भी चरित्र को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए।”[3]
यह काव्य के उद्देश्य हैं, परन्तु इन्हें साहित्य के भी उद्देश्य माना जा सकता है। क्योंकि भारत में साहित्य मूलत: पद्य में ही रचा जाता था। रेने वेलेक की पुस्तक साहित्य सिद्धांत में लिटरेचर शब्द के पर्याय पर बात की गयी है और इसमें यह प्रश्न किया गया है कि अंग्रेजी में इसके लिए फिक्शन या पोएट्री का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इन्हें इनके संकीर्ण अर्थों में पहले से ही बाँध दिया है। उनके अनुसार लिटरेचर के विषय में यह आपत्ति है कि इससे यह परिलक्षित होता है कि जो लिखा गया है वही साहित्य है, और मौखिक को बाहर कर दिया है। इस दृष्टि से लिटरेचर शब्द की तुलना जर्मन वोर्टकुंस्ट या रूसी स्लोवेस्नोत से की जा सकती है। इस पुस्तक के अनुवादक के अनुसार “भारतीय शब्द काव्य को लिटरेचर का पर्याय माना जा सकता है, परन्तु पश्चिम के अनुकरण पर इसे भी मात्र कविता तक सीमित कर दिया गया है।[4]
साहित्य के अर्थ और प्रयोजन से यह स्पष्ट होता है कि यह एक विशिष्ट विधा है, इसमें मौखिक एवं लिखित दोनों ही प्रकार का साहित्य सम्मिलित है एवं यह कवि के विचारों पर, रचनाकार के दृष्टिकोण पर एवं सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित होता है। परन्तु फिर से वही प्रश्न उठ खड़ा होता है कि क्या काल खंड को किसी विशेष परिभाषा के दायरे में देखने को ही साहित्य कहा जाएगा?
इससे पूर्व दो और परिभाषाओं पर दृष्टि डालनी होगी, एक राजनीतिक या औपनिवेशिक अल्पसंख्यक की परिभाषा, एवं दूसरा प्रगतिशील साहित्य!
अल्पसंख्यक की परिभाषा
सबसे पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर अल्पसंख्यक की परिभाषा क्या है और औपचारिक रूप से उद्गम क्या है और इसका निर्धारण स्थानीय या वैश्विक रूप से किया जाता है? संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार वर्ष 1977 में इसे फ्रांसेस्को कैपोतोरी ने इस प्रकार बताया “एक ऐसा समूह, जिसकी स्टेट में जनसँख्या कम होती है, वह कुछ भी निर्धारित करने की स्थिति में नहीं होता है, उसके नागरिक उस राज्य के नागरिक होते हैं, और जिनकी धार्मिक, भाषाई या मूल पहचान शेष जनसँख्या से कम होती है, उसे अल्पसंख्यक कहा जाता है!”
फिर इसमें लिखा है कि कई बार देखा गया है कि जो बहुसंख्यक होते हैं, उनका शोषण भी संख्या में कम लोगों द्वारा किया जाता है। जैसे दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के अश्वेतों का किया।[5]
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भी अल्पसंख्यक की परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है क्योंकि संख्या से इसका निर्धारण नहीं किया जा सकता है, जैसा हम अभी भारत के उदाहरण में देख सकते हैं।
इस्लाम के आक्रमण से दहल गया था पूरा देश
हिन्दू और बौद्ध बाहुल्य देश भारत पर मुस्लिमों ने आक्रमण किया और संख्या में कम होने, परन्तु क्रूरता में भयानक होने के कारण बहुसंख्यक हिन्दुओं की बौद्धिक एवं भौतिक संपदा को नष्ट करने का बार बार प्रयास किया गया। भारत का लिखित साहित्य जला दिया गया, सम्पूर्ण विश्व में विख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने वर्ष 1198 में जला दिया था। और इसके साथ ही गुलाम वंश से लेकर मुग़ल काल तक बाहर से आए आक्रमणकारियों ने स्थानीय बहुसंख्यक हिन्दुओं पर जो अत्याचार किए थे, वह सभी इतिहास की पुस्तकों के साथ साथ तत्कालीन यात्रियों के संस्मरणों में लिपिबद्ध हैं।
हर शहर के अभिलेखों में दर्ज है यह अत्याचार। फिर ऐसे में अल्पसंख्यक की यह परिभाषा अपने आप में विफल हो जाती है कि वह संख्या में कम होते हैं।
अंग्रेजों ने भी मुट्ठी भर होते हुए भी विमर्श पर शासन किया एवं वही विमर्श अभी तक चल रहा है। अल्पसंख्यक की परिभाषा का निर्धारण कैसे होगा, यदि साहित्य इसका निर्धारण मात्र संख्या के आधार पर करेगा तो भक्तिकालीन, वीरगाथा कालीन समस्त साहित्य ही परिभाषा से बाहर हो जाएगा, जो इस्लामी आक्रमणकारियों के अत्याचारों का वर्णन करता है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या अल्पसंख्यक की परिभाषा साहित्य को प्रभावित करती है, क्या यह संभव है कि दायरे और परिभाषा में ही साहित्य सिमट जाए?
इसके लिए प्रगतिशील लेखक आन्दोलन को भी समझना होगा!
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन अर्थात प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना लन्दन में भारतीय लेखकों और बौद्धिकों द्वारा वर्ष 1935 में की गयी, जिसमें उन्हें कुछ अंग्रेजी साहित्यिक व्यक्तियों का योगदान प्राप्त हुआ। मुल्क राज आनंद, सज्जाद जहीर और ज्योतिमाया घोष सहित कुछ लेखकों का समूह था, जिसने यह निर्धारित किया कि “भारतीय समाज में बहुत ही तेजी से बहुत अधिक परिवर्तन आ रहे हैं। ऐसे में हमारा यह मानना है कि भारत में जो साहित्य है (लिटरेचर) है, उसे मौजूदा समस्याओं का सामना करना चाहिए, भूख और गरीबी की समस्याएं, सामाजिक पिछड़ेपन की समस्याएं, और राजनीतिक दमन की समस्याओं पर बात करनी चाहिए। हमें जो भी पीछे की ओर खींचता है, हमें अकर्मण्य बनाता है और अतार्किक बनाता है हम उसे प्रतिक्रियावादी कहकर अस्वीकार करते हैं। हम केवल उसी को प्रगतिशील मानेंगे जो हमारे भीतर आलोचक की दृष्टि उत्पन्न करेगा और संस्थानों एवं परम्पराओं को तर्क से जांचने देगा!” इस समूह में ऑक्सफ़ोर्ड, कैम्ब्रिज और लंदन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे, जो लंदन में माह में एक या दो बार मिलते थे और लेखों और कहानियों की आलोचना करते थे।[6]
यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि वर्ष 1935 में कुछ ऐसे लेखकों ने, जिनके दिल में भारतीय लोक के विषय में पिछड़ापन या एक तरफ़ा सोच थी, उन्होंने अब तक के लिखे साहित्य को प्रतिक्रिया वादी कहकर जैसे खारिज कर दिया और उस समय हिन्दुओं या भारतीय लोक के प्रति जो मिशनरी दृष्टि या कथित वाम दृष्टि थी, उसे ही साहित्य का मुख्य आधार बना दिया।
आर्य और द्रविड़ सिद्धांत, जिसे इतिहास में अभी तक स्थापित नहीं किया जा सका है, उसे ही अकाट्य सत्य मानते हुए भारत के लिखित इतिहास जैसे रामायण, महाभारत, वेदों को मिथक की श्रेणी में डाल दिया गया एवं यहाँ तक कि जो भी साहित्यकार हिन्दू दृष्टि से या मुस्लिमों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख करता था, उसे पिछड़ा कहकर त्याज्य माना जाने लगा।
इस संघ द्वारा एक अपील की गयी “”लेखक मित्रो ! हमारा क़लम, हमारी कला, हमारा ज्ञान उन शक्तियों के विरुद्ध रुकने न पाये जो मौत को निमंत्रण देती हैं, जो मानवता का गला घोटती हैं, जो रूपये के बल पर शासन करती हैं, और अंत में फ़ासिज़्म के विभिन्न रूप धारकर सामने आती हैं और अबोध जनता का खून चूसती हैं”
जैसे ही साहित्य में स्थानीय या देशज समस्याओं के स्थान पर दमन या अत्याचार की विदेशी परिभाषा आ गयी, वैसे ही भारत के एक वर्ग के साहित्य की दिशा निर्धारित हो गयी।
उर्दू साहित्य में कथित रूप से यह इन्कलाब आया था। फिर जब वर्ष 1936 में सज्जाद जहीर भारत में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की स्थापना का सपना लेकर आए तो वह मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी से भी मिले। परन्तु कुछ ही देर की ही बात-चीत में सज्जाद ज़हीर किस निर्णय पर पहुंचे स्वयं उन्हीं से सुनिए –
“हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था। हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे। जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे।”[7]
अर्थात यह स्पष्ट होता जा रहा था कि यह जो कथित प्रगतिशील लेखक संघ था, उसका शिकार कौन बनने जा रहा था। हिन्दुओं को या हिन्दू विचारधारा को खलनायक बनाने की नींव डाली जा चुकी थी।
चूंकि इसमें उर्दू लेखक ही अधिक जुड़े थे, इसलिए हिन्दी वाले लेखक इसके साथ जुड़ने से कतरा रहे थे। परन्तु इसमें जैसे ही राजनेतिक हस्तक्षेप जैसे ही हुआ, वैसे ही परिदृश्य बदल गया। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा “कलाकार और साहित्यकार की एक अलग पहचान होती है और जिसमें यह पहचान नहीं है, मैं उसे कलाकार नहीं कह सकता। पर उसकी पृथक पहचान यदि ऐसी है कि वह समाज से अलग है और जो चीज़ें समाज को हिलाती हैं, उनसे प्रभावित नहीं होता, तो उस साहित्यकार की कोई उपयोगिता नहीं है। यह पहचान यदि विकसित हो सकती है तो केवल समाज के समाजवादी ढाँचे में। यह कहना कि समाजवाद आकर हमारी पृथक पहचान को मिटा देगा, सर्वथा ग़लत है। आने वाले इंक़लाब के लिए देश को तैयार करना साहित्यकार की ज़िम्मेदारी है। आप जन-सामान्य कि समस्याओं का समाधान कीजिए, उनको रास्ता बताइये, लेकिन आपकी बात उनके दिल में उतर जानी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ एक बड़ी ज़रूरत को पूरी करता है और उस से हमें बड़ी आशाएं हैं”
पंडित नेहरू के भाषण का एक लाभ यह अवश्य हुआ कि वे लोग जो नेहरू जी के प्रति श्रद्धा रखते थे और प्रगतिशील सम्मेलनों में भाग लेने से कतराते थे, अब इस संस्था के लिए पर्याप्त नर्म पड़ गए।[8]
यह एक आरंभ था। साहित्य को एक राजनीतिक दृष्टि से देखने का या फिर साहित्य में अब क्या आगे रहेगा, इस विषय में निर्धारण करने का। ऐसा प्रतीत हुआ कि साहित्य को राजनीतिक प्रमाणपत्र की आवश्यकता होने वाली थी। इस लेखक संघ के तले आने वाले साहित्य को ही सच्चा और प्रमाणिक साहित्य बनाने का अभियान आरम्भ हो गया। वर्ष 1949 के अपने अधिवेशन में पारित किए गए घोषणापत्र में यहाँ से यह कहा गया कि “प्रगतिशील साहित्यकार अतीत की संस्कृति और साहित्य के सच्चे वारिस हैं और वो मानव सभ्यता की श्रेष्ठ परम्पराओं को लेकर आगे बढते हैं। समाज के ऐतिहासिक विकास के परिदृश्य में वे अपनी सांस्कृतिक विरासत को आलोचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं।”
जबकि वर्ष 1935 में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के रूप में प्रेमचंद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि
‘प्रगतिशील लेखक संघ’, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अन्त कर देना चाहता है, जिससे दुनिया जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय। यही वेदना और यही भाव उसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाए रखता है।“
परन्तु जैसे जैसे एक विशेष राजनीतिक सोच आगे बढ़ती गयी, वह कहीं न कहीं उसी खांचे में साहित्य को ढालती गयी और प्रयोजन भी बदलते गए। यथार्थ के वर्णन के नाम पर उन रचनाकारों एवं रचनाओं का विरोध ही आरम्भ नहीं हुआ, जिनमें हिन्दुओं के साथ हुए अत्याचारों को बताया गया था, बल्कि उन्हें साहित्यकार के परिदृश्य से ही बाहर कर दिया गया।
यहाँ तक कि निर्मल वर्मा को भी मात्र इसलिए साहित्यकार मानने से इंकार कर दिया जाता है क्योंकि उन्होंने उस थोपी हुई धर्मनिरपेक्षता का विरोध किया था, जो इस प्रगतिशील लेखक संघ ने पूरे हिन्दी साहित्य पर थोपने का प्रयास किया था।
उन्होंने धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर उंगली उठाते हुए कहा था कि
धर्म की दो अवधारणाएं उपस्थित हैं, एक वह जो मनुष्य और संस्कृति के सम्बन्ध को पवित्र मानती है और जब यह स्वीकार करती है कि मनुष्य सृजन चेतना का संवाहक है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वह सृष्टि के केंद्र में है। —————— और दूसरी मसीहा की धारणा है, जिसमें एक दायरा है जिसे मसीहा का आशीर्वाद है, और इस दायरे से बाहर सभी अन्य हैं। वह इस दायरे में तभी प्रवेश कर पाएंगे जब वह उस मसीहा को स्वीकारेंगे!
निर्मल वर्मा ने स्वयं को मार्क्सवादी नहीं माना। उन्होंने बार बार यह कहा कि वह मार्क्सवादी नहीं हैं। उनका धर्म और धर्मनिरपेक्षता का निबंध कई सन्दर्भ में विशिष्ट है, क्योंकि इसमें उन्होंने हर उस अवधारणा का विरोध किया है, जो वर्ष 1935 में एक विशेष विचारधारा के अंतर्गत बलात थोप दी गयी थीं।
उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि पिछले 50 वर्षों में धर्म निरपेक्षता या सेक्युलरिज्म का सम्बन्ध मसीहा वाली अवधारणा से था, उस अवधारणा से नहीं जो भारतीय सभ्यता के केंद्र में थी। उन्होंने खुलकर सत्ता के उस रुख का विरोध किया, जिसने जनता को ऐसे धर्म से निरपेक्ष होने के लिए बाध्य किया, जिसका उनसे कोई भी लेनादेना नहीं था।[9]
जबकि जो धर्मनिरपेक्षता या अल्पसंख्यकवाद संविधान में लिखा गया, उसे साहित्य के एक वर्ग में हूबहू ले ही नहीं लिया गया, बल्कि उसे ही अकाट्य सत्य मान लिया गया।
यह भी विरोधाभासी रहा, कि व्यवस्था का विरोध करने वाला कथित साहित्य इतनी बड़ी अवधारणा के सम्मुख दंडवत हो गया और उसने प्रश्न नहीं उठाया। बल्कि जिसने भी धर्म की उस अवधारणा पर प्रश्न उठाया, उसे ही साहित्यकार न होने का ठप्पा प्रदान कर दिया।
हिन्दू इतिहास के गौरव का बोध करने वाले तमाम साहित्यकारों को साहित्य्कार न मानने की सनक रही
ज्ञातव्य हो कि जब वर्ष 1935 में जहाँ एक ओर साहित्य को कथित प्रगतिशील बनाने के लिए सभ्यता से काटने की बातें हो रही थीं, तो वहीं उससे पहले राष्ट्रीय चेतना के तमाम कवि रचनाएं कर रहे थे। जिनमें जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान सहित तमाम कवि थे, जो यथार्थ को यथार्थ के रूप में व्यक्त कर रहे थे, इनके यथार्थ में औपनिवेशिक गुलामी या औपनिवेशिक दृष्टि का पुट नहीं था, जो बाद में प्रगतिशील साहित्य का पर्याय बन गया था। जयशंकर प्रसाद का यथार्थवाद हिन्दू लोक और मानस से जुड़ा हुआ यथार्थवाद था, जिसके हल किसी औपनिवेशिक अल्पसंख्यक वाद में नहीं थे, बल्कि इसी लोक में थे।
सुभद्राकुमारी चौहान का जो स्त्री विमर्श था, उसमें स्त्री लोक की स्त्री थी। उसकी पीड़ा लोक की पीड़ा थी। वह कहीं से थोपी गयी वाद की स्त्री नहीं थी।
बदलती राजनीति के साथ रचनाओं का स्वर बदलता गया
जैसे जैसे राजनीति में अल्पसंख्यक वाद आता गया, वैसे वैसे हिन्दी की रचनाओं में अल्पसंख्यकवाद आता गया। जहाँ प्रगतिशीलता का अर्थ हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को सामाजिक एवं सामान्य ग्रन्थ मानकर अकादमिक विमर्श के नाते नीचा दिखाना होता गया, तो वहीं अल्पसंख्यक की भावनाओं का आदर करते हुए, उनकी भावनाएं आहत न हों, इसका पूरा ध्यान रखा गया। हालांकि अल्पसंख्यक की परिभाषा न ही संयुक्त राष्ट्र संघ में निर्धारित है और न ही भारतीय संविधान में। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350A तथा 350B में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन इसकी परिभाषा कहीं नहीं दी गई है।
और हाल ही में उच्चतम न्यायालय में यह भी मुकदमा चल रहा है कि प्रदेशों के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यक का निर्धारण किया जाना चाहिए। आखिर फिर कौन है अल्पसंख्यक, जिनके अधिकारों के हनन के विरोध में हिंदी साहित्यकार पन्ने रंगते रहते हैं और मजे की बात यही है कि उनके लिए बाबर जिसने हिंदुस्तान पर बेइन्तहा जुल्म किए थे, उसका नाम इतना पवित्र हो गया कि उन्होंने कथित बहुसंख्यकों की शताब्दियों की पीड़ा को भी भुला दिया। वर्ष 1992 का विवादित ढाँचे का गिरना, उस वर्ग के लिए कच्चा माल साबित हुआ, जो बार बार हिन्दू साम्प्रदायिकता को कोसते तो थे, परन्तु उसका कोई प्रमाण उनके पास नहीं था।
उनके पास विमर्श था, परन्तु उनके पास उदहारण नहीं था। हालांकि जब विवादित ढाँचे का विमर्श चल रहा था तो उसी समय पूरे देश में कथित अल्पसंख्यक परन्तु कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय, वहां के अल्पसंख्यक समुदाय के साथ अत्याचारों की हर सीमा पार कर रहा था। परन्तु देश का कवि उसकी ताप को अनुभव नहीं कर पा रहा था, कश्मीर से उठता हुआ पीड़ा का स्वर दिल्ली के मैदानों में आकर दम तोड़ रहा था, क्योंकि जो अत्याचार कर रहे थे, वह तो कथित अल्पसंख्यक थे, तो वह अत्याचार कैसे कर सकते थे?
उन्होंने गिरिजा टिक्कू को मजहबी नफरत के आधार पर जिन्दा ही आरी से काट दिया था, परन्तु गिरिजा टिक्कू का शव वह विमर्श उस वर्ग में हलचल पैदा नहीं कर सका, जो वर्ष 1992 में विवादित ढाँचे ने विध्वंस ने कर दी। उससे पहले भी कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना के परिणामस्वरूप मारे गए लोगों के शव भी उस वर्ग के विमर्श में स्थान नहीं पा पाए थे, क्योंकि प्रगतिशीलों के लिए तो रामायण और महाभारत कथाएँ थीं, इतिहास नहीं, और कश्मीर में गिरिजा टिक्कू को जो मार रहे थे, वह कथित अल्पसंख्यक थे, तो कहीं न कहीं राजनीतिक विचारधारा ने साहित्य के एक बड़े वर्ग को मानसिक पंगु कर दिया था।
गिरिजा टिक्कू पर कश्मीर के कवि दिलीप कौल ने लिखा है
शहीद गिरिजा रैना का पोस्टमार्टम
-दिलीप कुमार कौल
सर के बीचोंबीच
चलाई गई है आरी नीचे की ओर
आधा माथा कटता चला गया है
आधी नाक
गर्दन भी आधी क्षत विक्षत सी
बिखर सी गई हैं गर्दन की सात हड्डियां
फिर वक्ष के बीचों बीच काटती चली गई है नाभि तक आरी
दो भगोष्ठों को अलग अलग करती हुई
दो कटे हुए हिस्से एक जिस्म के
जैसे एक हिस्सा दूसरे को आईना दिखा रहा हो
………………………………..
दोनों हिस्सों पर
एक एक कुम्हालाया सा वक्ष है
जैसे मुड़ी तुड़ी पॉलिथीन की थैली
नहीं जैसे एक नवजात पिल्ले का गला घोंटकर
डाल दिया गया हो
एक फटे पुराने लिहाफ़ से निकली
मुड़ी तुड़ी रुई के ढेर पर ।।।
…………………………
एक हिस्से की एक आंख में भय है
और दूसरे हिस्से की एक आंख में पीड़ा……………………
……………………
देखो यह शव परीक्षण की भाषा नहीं है
यहां उपमाओं के लिए
कोई स्थान नहीं है।।।
पर क्या करें जब बीच से दो टुकड़ों में बंटा शव हो
तो इच्छा जागृत होती ही है समझने की कि
कैसा लगता होगा वह अस्तित्व
दो टुकड़ों में बंटने से पहले
कल्पनाएं खुद ही उमड़ पड़ती हैं
और भाषा बाह्य परीक्षण और आंतरिक परीक्षण की शब्दावलियों को लांघकर
उपमाओं के कवित्व को छूने लगती है
……………………
हां परन्तु यह कर्तव्य नहीं है
न ही वांछित है
क्षमा करें
तो फिर व्यावसायिक प्रतिबद्धता की ओर लौटता हूं
आता हूं बाह्य परीक्षण की ओर
परन्तु भाषा की तटस्थता का वादा नहीं कर सकता
यह औरत है,
क्षमा करें औरत थी,
बीस बाईस साल की
इसके कान ऊपर की ओर भी छिदे हुए हैं
सुहाग आभूषण अटहोर पहनने के लिए
(अटहोर ज़ोर से खींच लिया गया है क्योंकि कानों के ऊपरी छेद
कट कर लंबे हो गए हैं।)
कोष्ठक में मेरी यह व्यावसायिक टिप्पणी है परन्तु
कल तक सब के साथ इन कानों को भी फाड़ती थीं भुतहा चिल्लाहटें
“ हम क्या चाहते आज़ादी”
और दोनों कानों के श्रवण स्नायुओं से होते हुए
इन चिल्लाहटों का आतंक पहुंच गया होगा
मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों में
जो कि अब अलग अलग पड़े हैं
खोपड़ी के दो अलग अलग हिस्सों में
हर गोलार्द्ध में अपने अपने हिस्से का आतंक है
पीड़ा है
लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि
आरे पर काटे जाने से पहले ही वह मर चुकी थी
क्योंकि जिस्म के कटे हुए हिस्सों से
ख़ून ही नहीं बहा
हृदय का धड़कना तो पहले ही बंद हो चुका था
उसको महसूस ही नहीं हुई होगी वह असीम पीड़ा।।
……………………
मूर्ख हो तुम
उसे तो दो टुकड़ों में काटा ही इसलिए गया था
कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा
तुम बोलो न बोलो
कान सुनें न सुनें
आरी चलती रहे खोपड़ी को बीच में से काटकर पहुंचे भगोष्ठों तक
कि तुम्हें याद रहे
मातृत्व का राक्षसी मर्दन
……………………
हां कटी हुई अंतड़ियों के छेद को दबाया तो
हरे साग और भात के अंश मिले
घर से खाना खाकर निकली थी यह
कि शाम को वापस आएगी,
देखो अलग अलग पड़े दोनों हिस्सों के
अलग अलग भगोष्ठों को देखो
देखो जमे हुए काले पड़ रहे रक्त के साथ मिला हुआ
श्वेत द्रव्य
मध्य युगीन रेगिस्तानी वासनाओं का
विक्षिप्त, नृशंस वीर्य
चिल्लाता हुआ ऐ काफ़िरो ऐ ज़ालिमो
किसी को सज़ा नहीं मिलेगी
……………………
बस तुम्हें यह आरी काटती रहेगी खोपड़ी के बीच से भगोष्ठों तक
इस पोस्टमार्टम के बाद
पुरुष होते हुए भी
तुम्हारे वक्ष उभर आएंगे
परिवर्तित हो जाएंगे तुम्हारे सभी अंग
आत्म परीक्षण हो जाएगा
यह शव परीक्षण
जो भी हो चलो
अभी इतना तो किया ही जा सकता है कि
बीच से कटे हुए इस जिस्म के दोनों हिस्सों को
एक दूसरे से जोड़ कर सिल दिया जाए
एकता और अखंडता के साथ
कम से कम अंत्येष्ठि तो होगी
अग्नि की भेंट चढ़ने तक ही सही
शव परीक्षक की सिलाई
कम से कम इस काम तो आएगी कि
राख होने तक भ्रम बना रहे कि
दोनों टुकड़े
एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं।
0
जून 1990
परन्तु वर्ष 1990 में लिखी गयी इस कविता का पोस्टमार्टम भी उस वर्ग को इस सत्य को स्वीकारने पर बाध्य नहीं कर सका कि गिरिजा टिक्कू सहित कई और स्त्रियों के साथ क्या अन्याय हुआ है, बल्कि जो राजनीति थी कि जगमोहन ने पंडितों को भगाया क्योंकि “अल्पसंख्यकों” को बदनाम किया जा सके, यह विमर्श साहित्य में छा गया। और उसके बाद उन्होंने अपने इसी राजनीतिक विमर्श को स्थापित करने के लिए वर्ष 1992 में विवादित ढाँचे के विध्वंस का सहारा लिया। उससे पूर्व कश्मीर में टूटे हुए मंदिर उन्हें नहीं दिखाई दिए, उन्हें पाकिस्तान में टूटते हुए मंदिर नहीं दिखाई दिए, परन्तु इस घटना ने उन्हें कच्चा माल दे दिया और फिर उन्होंने “राजनीतिक अल्पसंख्यकवाद” को पूरी तरह से अपनी कविताओं में समाहित कर दिया।
सोमनाथ जब तक हिन्दू पीड़ा दिखा रहा था, तब सज्जाद जहीर ने उसकी बात करने वाले कन्हैया लाल मुंशी को प्रगतिशील मानने से इंकार कर दिया था, परन्तु उसी प्रगतिशील साहित्य ने अपने प्रभु श्री राम के जन्मस्थान के लिए बलिदान होने वाले कारसेवकों को महमूद गजनवी की संज्ञा दे दी, नरेश सक्सेना ने लिखा:
इतिहास के बहुत से भ्रमों में से
एक यह भी है
कि महमूद ग़ज़नवी लौट गया था
लौटा नहीं था वह
यहीं था
सैकड़ों बरस बाद अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में
सोमनाथ में उसने किया था
अल्लाह का काम तमाम
इस बार उसका नारा था
जय श्रीराम।[10]
इसके बाद जैसे हिन्दुओं को और प्रभु श्री राम को हिंसक स्थापित करने का अभियान आरम्भ हो गया, एवं जैसे जैसे राजनीति की दिशा बदलती गयी, हिन्दुओं के विरुद्ध नैरेटिव और तेज होता गया। गोधरा में आग अपने आप लगी थी या कारसेवकों ने ही लगाई थी, यह विमर्श जब जब राजनीति में आया, गोधरा काण्ड में जलने वाले कारसेवकों की पीड़ा साहित्य की मुख्यधारा में स्थान नहीं पा पाई जबकि उसके बाद हुए दंगे जिनमें हिन्दू भी मारे गए थे, परन्तु राजनीतिक अल्पसंख्यक वाद के चलते मात्र मुस्लिम पीड़ा पर ही बात हुई, कविताएँ लिखी गईं।
प्रगतिशील मंगलेश डबराल ने गुजरात दंगों पर लिखा
गुजरात के मृतक का बयान
पहले भी शायद मैं थोड़ा थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे धीरे जीता और मरता था
जीवित बचे रहने की अंतहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था
मैं तो रंगता था कपड़े तानेबाने रेशेरेशे
चौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फिल्मी क़द
मरम्मत करता था टूटी फूटी चीज़ों की
गढ़ता था लकड़ी के रंगीन हिंडोले और गरबा के डाँडिये
अल्युमिनियम के तारों से छोटी छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिए
इस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल एक तहमद
दिन भर उसे पहनता रात को ओढ़ लेता
आधा अपनी औरत को देता हुआ
मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए खड़ी थी मेरे आगे
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था जो हरकत थी वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो
और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ एक कारीगर एक मिस्त्री एक कलाकार एक मजूर था
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई जवाब नहीं आता
अब जबकि मैं मारा जा चुका हूँ मिल चुका हूँ
मृतकों की मनुष्यता में मनुष्यों से भी ज़्यादा सच्ची ज़्यादा स्पंदित
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और न जलाओ न कहने के लिए
अब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ एक मिटा हुआ चेहरा एक
मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ खौफ़ से देखते हो मेरी ओर
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र परिचित को या खुद अपने को
अपने चेहरे में लौटते देखते हो किसी चेहरे को। [11]
यह अभी लगता है कि राजनीतिक अल्पसंख्यकवाद साहित्य को प्रभावित करता है, जबकि इसकी नींव उसी दिन पड़ गयी थी, जब वर्ष 1935 में प्रोग्रेसिव लिटरेचर एसोसिएशन की स्थापना की गयी थी और हिन्दू पीड़ा के इतिहास को जबरन विमर्श से बाहर कर दिया गया था। जब पीड़ा ही नहीं रहेगी तो उसका विमर्श कहाँ से रहेगा और उसके बाद जिस प्रकार राजनीतिक विचारधारा ने आकर उस लेखक संघ का समर्थन किया, उससे भी अंतर पड़ा।
सबसे रोचक यह रहा कि इस कथित प्रगतिशीलता में भी फैज़ अहमद फैज़, जो पूरी तरह से एक मजहब विशेष की बात करते थे, वह प्रगतिशील हो गए और जो बुत गिरवाने की बात करते थे, जो मुस्लिम श्रेष्ठता का विमर्श करते थे वह क्रांतिकारी हो गए,
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
यह राजनीतिक अल्पसंख्यक वाद का ही प्रभाव था कि स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए लिखने वाले तुलसीदास पिछड़े हो गए, और
“गर हो कशेशे शाहे खुरासान तो सौदा,
सिजदा न करूँ, मैं हिन्द की नापाक जमीं पर!”
लिखने वाले सौदा प्रगतिशील हो गए।
औरतों को परदे में रखने वाले शेर प्रगतिशील हो गए
“बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां
अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ
कहने लगीं के अक़्ल के मर्दों पे पड़ गया”
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा लिखने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान पिछड़ी हो गईं, तो वहीं हिन्दू धर्म को बदनाम करने वाली लेखिकाएं प्रगतिशीलता का पर्याय हो गईं।
वर्ष 1935 में स्थापित हुए प्रगतिशील आन्दोलन ने राजनीतिक अल्पसंख्यक वाद का चोला पहना और अपने एजेंडे के अनुसार चलने वाली सत्ता का साथ दिया।
[1] डॉ। हीरा, राजवंश सहाय भारतीय आलोचना शास्त्र, 2014, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पृ 82
[2] गुप्त, डॉ। गणपतिचंद्र, 2016, भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य सिद्धांत, लोकभारती प्रकाशन पृ-42
[3] डॉ। हीरा, राजवंश सहाय, 2014, भारतीय आलोचना शास्त्र, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पृ 90
[4] रेने वेलेक, साहित्य सिद्धांत, लोकभारती प्रकाशन, अनुवाद बीएस पालीवाल, पृष्ठ 27
[5] https://www।ohchr।org/en/issues/minorities/pages/internationallaw।aspx
[6] https://www।open।ac।uk/researchprojects/makingbritain/content/progressive-writers-association
[7] https://web।archive।org/web/20160305121647/http://yugvimarsh।blogspot।com/2008/06/blog-post_14।html
[8] https://web।archive।org/web/20160305121647/http://yugvimarsh।blogspot।com/2008/06/blog-post_14।html
[9] https://www।hindisamay।com/content/6769/1/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B2-%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%A7-%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A4%BE।cspx
[10] https://www।hindwi।org/kavita/ayodhya/naresh-saxena-kavita-7
[11] http://www।pratirodh।com/arts-and-aesthetics/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%9C%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%B6-%E0%A4%A1%E0%A4%AC/