क्या आप उस बाजार की कल्पना कर सकते हैं, जहां पर बीवी की बोली लगाई जा रही है और उसका पति यह तय करता है कि उसकी बीवी का नया प्रेमी कौन हो? क्या आप उस दृश्य की कल्पना कर सकते हैं, जब गले में पट्टे के साथ बीवी को लेकर जाया जा रहा हो? और लोग आनंद उठा रहे हों? साधारण तौर अपर इस दृश्य की कल्पना कोई नहीं कर सकता है और भारत में तो यह सहज सोचा भी नहीं जा सकता कि कोई पति ऐसा भी होगा जो अपनी बीवी की कलाई, कमर या गर्दन के आसपास रस्सी बांधेगा और किसी पशु की तरह उसे बाजार में ले जाएगा और वहाँ पर उसे सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को बेच देगा।
मगर यह होता था। यह विक्टोरियन युग मे ब्रिटेन मे आम बात थी। चूंकि उस समय वहाँ पर तलाक बहुत महंगे हुआ करते थे, इसलिए साधारण वर्ग उसे वहन नहीं कर सकता था और जो भी दम्पत्ति अपनी शादी खत्म करना चाहता था, वह यही प्रक्रिया अपनाता था। ऐसा कहा जाता है कि बीवियों की इसमें अनुमति हुआ करती थी, क्योंकि वे भी अपनी शादी से खुश नहीं होती थीं।
हालांकि यह रस्म कानूनी नहीं थी, मगर गैर-कानूनी भी नहीं थी। आदमी अपनी बीवी को सरेआम इसलिए बेचता था ताकि उसके पास गवाह रहें, सबूत रहें। मगर एक औरत जो ऐसे किसी भी संबंध में प्रवेश करती थी, वह हमेशा ही इस डर के साथ रहती थी कि कभी भी उसका पुराना पति आ जाएगा और उसे किसी न किसी बात पर सजा देगा। कानूनी रूप से उसका पुराना पति उसके नए प्रेमी से पैसे भी वसूल सकता था कि वह उसकी बीवी के साथ सेक्स कर रहा है। वह औरत अदालतों मे भी नहीं जा सकती थी क्योंकि अदालत में वह अपने पति को उसके साथ किए जा रहे इस व्याभिचार के लिए घसीट नहीं सकती थी।
यह भी कहा जाता है कि दरअसल बीवी को बेचने की प्रक्रिया मात्र प्रतीकात्मक हुआ करती थी। और केवल एक ही बोली लगाने वाला होता था, और वह भी पहले सब कुछ तय कर चुका होता था। आदमी अपनी बीवी को बिना बताए भी उसे बेच सकता था। यह भी कहा जाता है कि हालांकि यह देखने में लगता है कि महिलाओं को इस प्रक्रिया में नुकसान होता था, मगर चूंकि महिला अभी भी अपने पहले पति से तकनीकी रूप से विवाहित होती थी, तो वही उसकी सारी दौलत की मालकिन होती थी। मगर फिर भी औरत के लिए यह प्रक्रिया न केवल शर्मिंदा करने वाली थी, बल्कि अपमान से भरी थी।
कितना पुराना है इसका इतिहास
यूरोप में बीवी बेचने की यह प्रक्रिया कितनी पुरानी थी, इस पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कोई इसे पंद्रहवीं शताब्दी या सोलहवीं शताब्दी की घटना बताता है, क्योंकि बीवी बेचने की पहली घटना वर्ष 1553 में रिकार्ड हुई थी। मगर दूसरी ओर, सैमुएल पिएट मेनेफी का मानना था कि यह ‘स्थापित ब्रिटिश संस्था’ मूलतः एंग्लो-सैक्सन थी, जिसका प्रचलन ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था। चूंकि समाचारपत्रों का चलन वर्ष 1750 से 1850 के बीच हो गया था, तो ऐसी घटनाएं लगातार प्रकाश में आने लगी थीं।
सामान्यतया ये घटनाएं निम्न वर्ग के लोगों में पाई जाती थीं, क्योंकि उनके पास तलाक के पैसे नहीं होते थे। इसलिए वे इस प्रक्रिया के माध्यम से अलग हो जाते थे।
कुछ लेखकों का कहना है कि चूंकि शादी के बाद औरतों के पास संपत्ति, आय या फिर अपने पति के लिए किसी भी प्रकार के अनुबंध करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता था, और अंग्रेजों के बहुत जटिल कानूनों एवं तलाक की अत्यधिक लागत के कारण बीवियों के लिए अपने पति से अलग होना और ऐसी स्थिति में वापस आना कठिन होता था, जहाँ पर शादी मे खोए गए अपने अधिकार वह वापस ले सकें।
विक्टोरियन युग में तलाक केवल तभी अनुमत होता था, जब पति या पत्नी जानलेवा क्रूरता या व्यभिचार साबित कर सकें। हालाँकि, दुखी जोड़ों के लिए उपलब्ध कानूनी विकल्प महंगे और अप्रभावी थे।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि कई बार आदमी अपनी औरत को वित्तीय कठिनाइयों के चलते भी बेच देता था। और बीवी को बेचना उसे सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने और उससे बदला लेने के रूप मे भी देखा जाता था।
1857 तक यह चलन चलता रहा था। 1857 में मटर्मोनियल कॉजेस एकट पारित हुआ और इसनें तलाक को आसान बनाया और महिलाओं को अधिकार दिए। जिसके परिणाम स्वरूप बीवी को सार्वजनिक रूप से बेचे जाने की प्रक्रिया का अंत हुआ।
भारत में महिलाओं को लेकर तमाम विमर्श चलाने वाले लोग कभी भी इन कुरीतियों पर बात नहीं करते हैं। यह कुरीति समाज मे व्याप्त थी, बात तलाक के नियमों की नहीं है। बात उस शर्म की और महिलाओं के उस स्थान की है जो वह समाज उन्हें देता था। भारत के किसी भी कोने पर कोई भी भारतीय समुदाय यह कल्पना ही नहीं कर सकता है कि कोई समाज अपनी महिलाओं के प्रति इस प्रकार का व्यवहार कर सकता है? उसे पशुओं की तरह बेच सकता है और उसके गले में, पट्टा आदि डालकर बीच सड़क पर पैसे के लिए नीलामी कर सकता है।
image source: internet
reference: Wikipedia and internet