फेमिनिज्म की जब हम बात करते हैं तो बस यहीं तक रह जाते हैं यह नहीं करना, वह करना आदि आदि! चॉइस फेमिनिज्म को हम व्यक्तिगत फेमिनिज्म कह सकते हैं। इस प्रकार के फेमिनिज्म में केवल औरत की व्यक्तिगत पसंद की बात होती है। जैसे माई बॉडी, माई चॉइस। माई लाइफ माई चॉइस। मैं तो शराब और सिगरेट पियूँगी और छोटे छोटे कपड़े पहनूंगी! इसका निर्णय मैं करूंगी और कोई नहीं। इस विचारधारा में, औरत अपने मन से सेक्स वर्कर होने का चुन सकती है, सिंगल मदर होने का चुन सकती है या फिर वह फुल टाइम कैरियर वुमन होना चुन सकती है। इसी ब्रांड के फेमिनिज्म की ही वकालत फीमेल सेलेब्रिटीज करती हैं और उन्हें पर्याप्त समर्थन मिलता है। और मैं भी इस ब्रांड की फेमिनिज्म की समर्थक हूँ! मगर यह भी निश्चित है कि इस ब्रांड का फेमिनिज्म परिवार को साथ लेकर चलने की वकालत करने वाली स्त्रियों को चॉइस नहीं देता है
अब आते हैं इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म पर। इस शब्द की अवधारणा सबसे पहले वर्ष १९८९ में Kimberle Crenshaw ने प्रस्तुत की थी। अब थोड़ा रोचक है इसे समझना। यह अवधारणा शोषण के इतिहास या वर्ग के अनुक्रमों के प्रकार का निर्माण करके नागरिक अधिकार आंदोलनों में फेमिनिज्म को सम्मिलित करती है, जिसमें जाति, रंग, क्षेत्र, मूल निवासी, अल्पसंख्यक, क्षमता (अक्षमता) आदि के आधार पर कुछ फेमिनिस्ट कुछ फेमिनिस्ट की तुलना में अधिक शोषित होती हैं। Bob Lewis अपनी पुस्तक The Feminist Lie में उदाहरण देकर लिखते हैं कि एक अमीर गोरी फेमिनिस्ट को एक अश्वेत पुरुष फेमिनिस्ट की तुलना में कम शोषित माना जाएगा और अश्वेत पुरुष फेमिनिस्ट यदि अक्षम है तब तो वह निश्चित ही पीड़ित है, और वह श्वेत फेमिनिस्ट कम पीड़ित या शोषित है।
मजे की बात यह है कि जो यह इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म है, वह चाहता है कि औरतें एक समूह के रूप में एक विचार लेकर चलें और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को त्याग दें और उसी विचार को लेकर आगे बढ़ें जो वह प्रस्तुत करता है। इस प्रकार का जो फेमिनिज्म है वह खुलकर साम्यवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी विचारधाराओं और उनकी शिक्षाओं का समर्थन करता है और यह खुलकर इस बात का समर्थन करता है कि फेमिनिस्ट कभी भी शोषक नहीं हो सकते हैं। और यह इस आधार से अपने खुद के झूठ, शोषण और पुरुष घृणा के लिए बहाना खोजते हैं।
और इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म भारत में आकर उन स्त्रियों के खिलाफ खड़ा हो जाता है, जो अपनी परम्पराओं का पालन करना चाहती हैं, चूंकि उनके अनुसार धर्म अफीम है, तो वह एक धर्म के त्योहारों के खिलाफ तो मुंह खोलते हैं, हर त्यौहार को स्त्री विरोधी ठहराते हैं, हर त्यौहार को पितृसत्ता का त्यौहार बताते हैं और हर त्यौहार पर हिन्दू स्त्रियों को कोसने की परम्परा का पालन करते हैं, परन्तु जो कथित अल्पसंख्यक समुदाय है, जो उनके अनुसार पीड़ित है, उसके खिलाफ वह कुछ नहीं कहते बल्कि पहचान के अधिकार के नाम पर हिजाब और बुर्के के पक्ष में जाकर यही इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म खड़ा हो जाता है। इतना ही नहीं परम्परागत पोशाकों के विरुद्ध भी विष भरता है जैसे साड़ी, लहँगा आदि! और उन्हें असुविधाजनक, शरीर दिखाने वाली, भौंडी आदि आदि कहा जाता है।
और हिन्दू देवियों के विरुद्ध वह अपमानजनक तस्वीरें बनाती हैं
तो जो लोग बार बार फेमिनिस्ट से यह अपेक्षा करते हैं कि कथित अल्पसंख्यक युवाओं द्वारा हिन्दू लड़कियों पर होने वाले बलात्कारों पर बात करें, तो वह एक तरह से दीवार में ही सिर मारते हैं। क्योंकि उनके अनुसार शायद वह लोग अल्पसंख्यक हैं, पीड़ित हैं, तो वह कतिपय कारणों से बलात्कार कर लेते होंगे, इसलिए उन्हें माफ़ ही कर दिया जाना चाहिए। इसमें वह स्त्रियों के विरोध में जाकर खड़े हो जाते हैं। नहीं तो इतनी नाम बदल कर लड़कियों की हत्या के मामले आ रहे हैं, पर एक बार भी फेमिनिस्ट स्वर नहीं सुनाई दिया कि बहुसंख्यक समुदाय की लड़कियों के साथ यह बुरा हो रहा है। यह कभी कभी चॉइस फेमिनिज्म के खिलाफ भी जाता है, क्योंकि यदि वह साड़ी पहनकर सिन्दूर लगा ले तो वह उसे एकदम से पिछड़ा, संघी आदि घोषित कर देता है।
हाँ, जब बात आती है पुरुषों के प्रति घृणा की, तो यह दोनों ही प्रकार के फेमिनिज्म एक साथ आकर नारा लगाते हैं “पितृसत्ता तेरा नाश हो।”
और चुपके से उन सभी शोषणों पर चुप्पी साध लेते हैं, जो एक वर्ग विशेष की औरतों के साथ हो रहा है, बल्कि वह शोषण के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं!