कल सभी ने मातृदिवस मना लिया। मातृत्व एक बहुत ही गंभीर भाव है, अत्यंत महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है। क्योंकि आप जब अपनी सन्तान का पालनपोषण करती हैं, वह किस भाव से करती हैं, उसीमे समाज का हित और समाज अहित छिपा हुआ है। क्या विडंबना है कि जहाँ पर जगत जननी की अवधारणा है, जहां पर माँ का सबसे सुन्दर रूप माँ पार्वती हैं, जिनके पुत्र जगत के कल्याण की अवधारणा अपनी माँ से लेते हैं, वहां पर आज मात्र माँ को त्याग और रोने-धोने के विमर्श तक सीमित कर दिया है? क्या यह हमारे सांस्कृतिक क्षरण का उदाहरण नहीं है?
जैसी माँ है वैसी सन्तान हो जाती है, यह ऐसे ही नहीं कहा जाता है। जीजाबाई स्वयं स्वराज के स्वप्न को जीती थीं, अत: शिवाजी उसे साकार कर सके। यदि माँ अपने जीवन, अपने लक्ष्य एवं अपने उद्देश्यों को लेकर भ्रमित होगी, उसकी सन्तान ऐसी पीड़ा भोगेगी, जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की होती है। अब प्रश्न उठ खड़ा होता है कि एक दिन हम मना लेंगे तो कुछ हो नहीं जाएगा? माँ का आदर ही तो कर रहे हैं!
माँ का आदर करने के लिए एक ही दिन क्यों? और माँ की कौन सी अवधारणा का दिन? क्या इन दिनों जिस प्रकार माँ की भूमिका सीमित होकर वही रह गयी है जो वामपंथी फेमिनिज्म ने निर्धारित दी है, उसका उत्सव मनाया गया या फिर माँ की जो भारत में अवधारणा है उसपर भी बात की गयी?
आखिर एक स्त्री के लिए मातृत्व क्यों महत्वपूर्ण है? कभी इस विषय पर बात क्यों नहीं होती है और क्यों कभी उस भाव के विस्तार पर बात होती है जो दरअसल भारत की आत्मा में बसा हुआ है। माँ की अवधारणा क्या है? माँ की इतनी महत्ता क्यों है, क्या इस पर बात हुई? भारत के लोक में जो माँ है, उसका स्वरुप कितना वृहद और विशाल है, क्या कभी इस पर बात होती है? या फिर केवल पश्चिम से आयातित एक विचार को लेकर हम इतनी आत्महीनता से भर जाते हैं कि माँ को केवल अपनी माँ तक सीमित कर देते हैं?
एक माँ के अपनी बेटी, अपनी संतति के प्रति क्या उत्तरदायित्व होते हैं, क्यों संस्कार महत्वपूर्ण होते हैं, आदि पर बात क्यों नहीं होती? क्यों माँ की सबल छवि को एक रोनेधोने वाली छवि तक सीमित कर दिया जाता है? कभी विचारिये और सोचिये कि हम कहाँ जा रहे हैं?
माँ, कितना अद्भुत एवं विशाल शब्द! जो पृथ्वी के समान विशाल है, जो पृथ्वी के समान धीरज धरने वाला एवं शक्तिशाली शब्द है। यह जब विस्तारित होता है तो शकुन्तला के रूप में प्रस्फुटित होता है। दुष्यंत के पुत्र को जब शकुन्तला सौंपने जाती हैं तो वह उनका पुत्र इतना शक्तिशाली करके सौंपती है कि उसके नाम पर भी इस भूखंड का नाम भारत पड़ जाता है।
इसके प्रतिउत्तर में आज का विमर्श क्या है? क्या आज ऐसी कोई एकल माँ है, जिसका मातृत्व इतना भव्य एवं विशाल हो, और जो वन में रहते हुए, तमाम कथित सुविधाओं से परे रहते हुए अपनी संतति में भरत जैसे गुण प्रदान कर सके?
मातृत्व को केवल माँ के त्याग तक सीमित क्यों कर दिया? और त्याग भी रोना धोना क्यों भाई? जिस संस्कृति में मनुस्मृति तक में स्त्रियों अर्थात भावी माओं को लेकर यह कहा गया है कि जहां स्त्रियों का आदर नहीं होता, वहां पर देवता तक निवास नहीं करते वहां पर स्त्री का सारा स्वरुप मात्र रोने धोने और त्याग तक सीमित कर दिया है?
स्त्री के मातृत्व को मात्र वन बीएचके फ़्लैट तक सीमित करके रख देना, सांस्कृतिक ध्वंस का सबसे बड़ा उदाहरण है। स्त्री के मातृत्व की पहचान उसका त्याग नहीं बल्कि उसकी संतान का व्यक्तित्व होता है। हर सन्तान उसकी माँ का प्रतिरूप होती है। जैसे भरत अपनी माँ शकुन्तला के प्रतिरूप थे, प्रभु श्री राम अपनी कर्तव्यनिष्ठ माँ कौशल्या के संस्कारों को धारण करने वाले थे, शिवाजी जीजाबाई के स्वप्न के प्रतिरूप थे, तो एक माँ के रूप में पन्ना धाय का त्याग ही अद्भुत था।
परन्तु इनके सहित किसी भी स्त्री ने अपने कथित त्याग का रोना नहीं रोया। फिर कर्तव्य को बोझ समझकर रोने की माँ की अवधारणा क्यों भारत के विमर्श में आ गयी? यदि माँ का जीवन त्याग करते हुए बीता है, तो क्या परिवार उसके बोझ है, जिसके लिए वह त्याग कर रही है? क्या माँ के सहज कर्तव्य उसपर कोई ऐसी बाध्यता हैं, जो उसे पूरे करने हैं और उसके चक्कर में उसके अपने निजी सपने मारे जा रहे हैं?
निजी सपने? ये जो निजी सपने, निजी हर्ष, निजी दुःख आदि का जो विमर्श है, वही परिवार के सामूहिक विमर्श के विरोध में खड़ा हो जाता है और धीरे धीरे हमारी बेटियों के मन में परिवार के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने लगता है।
भारत में माँ को लेकर क्या सोचा जाता रहा है और जब स्त्री गर्भवती होती है तो कैसे प्राचीन काल से लेकर अब तक शासन द्वारा भी सुविधाएं प्रदान की जाती थीं।
कैसे प्रसव के उपरान्त हरीरा आदि खिलाने की व्यवस्था थी और माँ एवं नवजात को एक निश्चित अंतराल के बाद ही बाहर निकलने दिया जाता था, कि नवजात एवं माँ बाहरी संक्रमणों से मुक्त रहें। तमाम परम्पराएँ थीं, जिन्होनें मातृत्व को सुगम किया, सहज किया एवं कालान्तर में माँ के संरक्षण की प्रक्रियाएं शोषण के माध्यम में प्रसारित करके केवल अपनी माँ तक त्याग की अवधारणा को सीमित कर दिया!
यदि केवल आपकी माँ ने त्याग किया, तो केवल सन्तान के लिए अर्थात आपके लिए, उनके आंसू इसलिए हैं, क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं परिवार से प्यार नहीं मिला? यह कैसा विमर्श रच रहे हैं, आत्मकेंद्रित, परिवार विरोधी विमर्श?
जरा ठहर कर सोचिये कि माँ को त्याग से पूर्ण बताने में और केवल माँ ने ही आपके व्यक्तित्व में योगदान दिया और दादी सहित एक पूरी पीढ़ी को विमर्श में खलनायक बनाकर हम क्या कर रहे हैं और किसका हित साध रहे हैं?
माँ का विमर्श बनाना होगा, जो शकुन्तला है, जो सीता माता हैं, जो कुंती है, जो हिडिम्बा है, जो जीजाबाई हैं। मातृत्व जब और विशाल होता है तो वह रानी अहल्या के रूप में सामने आता है, मातृत्व जब अधिकार की बात करता है तो वह मनु को झांसी की रानी बना देता है। जो अपनी गोद ली गयी सन्तान के अधिकार के लिए अंग्रेजों से भिड जाती हैं।
1857 की क्रान्ति के पीछे अंग्रेजों की वह राज्य हड़प नीति भी उत्तरदायी थी, जिसने माओं के सहज अधिकार पर वार किया था। तो फिर माओं के त्याग को केवल एक पहलू तक सीमित क्यों करना? तनिक विचार करें कि हम विमर्श के धरातल पर कहाँ खड़े हैं?
आप विस्तृत और संतुलित लिखती हैं। अन्य तो मदर डे के नाम पर लहालोट हुए जा रहे हैं।
बहुत से मूढ़ राष्ट्रवादी भी उसी श्रेणी में हैं।