हम लोग बचपन से सुनते चले आए हैं कि यह देश राम और रहीम का देश है। रहीम के दोहे जब हमारी पुस्तकों में पढ़ाए गए तो हम लोगों की जुबां पर चढ़ गए और हमने उन्हें तुलसी बाबा के दोहों की तरह कंठस्थ कर दिया। हाँ, हमारी दादियों के लिए तुलसी बाबा और कबीर ही सबसे बढ़कर रहे। आखिर ऐसा क्या था तुलसी और कबीर में कि दादी वाली पीढ़ी उन्हीं दोनों की बातें करती थीं। हमने तो रहीम को किताबों में पढ़ा था। दादी के मुंह से या फिर दादी वाली किसी भी पीढ़ी के मुंह से इन दोनों के अलावा और किसी एक का नाम था तो वह थे गांधी जी! गांधी, कबीर और तुलसी में ऐसा क्या था जो दादी वाली पीढ़ी, जिन्होनें औपचारिक शिक्षा हासिल नहीं थी, उनकी जुबां पर था। कहीं न कहीं एक कड़ी थी जो उन्हें जोड़े थी, और वह कड़ी थी राम! जी हाँ! राम! राम और भारत अलग नहीं हैं, भारत को समझने के लिए आपको राम को समझना ही होगा। खैर यहाँ राम की बात होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी है।
अंग्रेजों ने जब भारत में कदम रखा तो वह यह देखकर हैरान रहते थे आखिर शाम होते होते पूरे गाँव के लोग राम की बात क्यों करने लगते हैं? स्त्रियों को राम के बाल रूप में क्या आनन्द प्राप्त होता है? THE RENAISSANCE IN INDIA, ITS MISSIONARY ASPECT में G. F.ANDREWS, जो कैम्ब्रिज में वाइस प्रिंसिपल थे और जिन्हें भारत में ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के लिए भेजा गया था, वह रामायण के विषय में लिखते हैं कि It is always to the well-known passages describing these scenes that the villagers of India turn, as they sit round their huqqas at night, after the heat and toil of the day are over। The recitation of them is welcomed even more than the rehearsal of the mighty deeds of valour wrought by the hero-god, Rama himself।
इसके साथ ही वह लिखते हैं कि “There are whole pro-vinces in upper India where the Ramayana is emphatically the Bible of the people, where, after the day s work is over, the farmers in their village homesteads, the shopkeepers in the bazaar, gather together to hear their favourite portions of this work recited।
अर्थात ईसाई धर्म के प्रचार में जो सबसे बड़ी बाधा थे वह थे राम, जैसा ही रामचरित मानस का हिंदी अनुवाद करने वाले जे एम मैक्फी, द रामायण ऑफ तुलसीदास में रामचरित मानस को द बाइबल ऑफ नोर्दर्न इंडिया, कहते हैं। और साथ ही इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हैं कि आखिर ऐसी क्या ख़ास बात इस पुस्तक में है कि केवल यह पुस्तक एक घर में होने से वह घर इतना पवित्र हो जाता है कि आसपास के गावों में उसकी इज्ज़त चार गुणी हो जाती है। जे एम मैक्फी इसलिए इसे बाइबिल कहते हैं क्योंकि “यह कहा जाता है कि इस कविता को संयुक्त प्रांत के इतने लोग प्रेम करते हैं, जितना कि इंग्लैण्ड में उतने क्षेत्र में रहने वाले लोग बाइबिल से करते हैं।”
द रामायण ऑफ तुलसीदास में ग्रोव्से लिखते हैं कि इस कविता को भारतीय संस्कृति का जीवंत प्रतीक माना जा सकता है। इस कविता को अंग्रेजी में लाने की होड़ के बीच उस समय के अनुवादक डब्ल्यू डगलस पी हिल अपनी पुस्तक होली लेक ऑफ रामा में लिखते हैं कि यह कविता उच्चतम स्तर की कविता है।
यह तो बात हुई तुलसीदास और रामचरितमानस लोकप्रियता की। वनवासियों में राम की लोकप्रियता है और यह कथा उन तक साधु लेकर जाते हैं। the oraons of Chota Nagpur में भी सरत चन्द्र उराऊं जाति का सम्बन्ध राम कथा अर्थात रामायण से जोड़ते हैं।
भारत में ईसाइयत के प्रचार में सबसे बड़ा रोड़ा ईसाई मिशनरीज़ के अनुसार केवल दो तीन ग्रन्थ रहे हैं, उनमें से एक है रामचरित मानस और दूसरा है मनुस्मृति। THE RENAISSANCE IN INDIA, ITS MISSIONARY ASPECT में G. F.ANDREWS तुलसीदास कृत रामचरित मानस के विषय में लिखते हैं “Being a philosopher he began to speak of the unbegotten, the indivisible, the immaterial, the formless, the nameless, the indestructible, the incomparable, the impassable, the illimitable। Again I cried, bowing my head at his feet, Tell me, holy father, how to worship the Incarnate।” वह इसे मानवीय संवेदना की ऐसी धारा बताते हैं जिसकी तुलना मिलना मुश्किल है
इसके अलावा भी रामचरित मानस के विषय में अंग्रेजी अनुवादकों ने काफी कुछ कहा है। अब आते हैं तुलसी के ही समकालीन दरबारी कवि रहीम पर! रहीम के साहित्यिक योगदान के विषय में बहुत अधिक संदेह नहीं किया जा सकता है, क्योंकि रहीम के नीति परक दोहे अत्यधिक उपयोगी हैं, परन्तु जब वह नीतिपरक दोहे लिखते हैं तो कहीं न कहीं उनका जो जीवन है वह कई प्रश्न उठाता है, जबकि तुलसी का जीवन एकदम पारदर्शी है। राम की भक्ति में सब कुछ त्याग कर लिखा। और रहीम ने लेखक के रूप में अलग जीवन जिया और कर्म कुछ और रहा।
दरबारी लिबास और तलवार चलाकर खून की नदियाँ बहाने से जन-नीतियों का निर्माण नहीं होता!
जैसे एक दोहा है
“रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत | काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँती विपरीत |”
अर्थात गिरे हुए लोगों से दोस्ती अच्छी नहीं होती और न ही दुश्मनी, कुत्ता चाहे काटे या चाटे अच्छा नहीं होता।
तो क्या यह माना जाए कि वह ऐसे लोगों से काटे जाने के भय से ही दरबार में बने रहे। क्योंकि वह उस अकबर के दरबार के नौरत्नों में से एक थे, जिसे हरम को संस्थागत रूप से शुरू करने का श्रेय दिया जाता है और जिस अकबर पर उनके पिता का खून करने का आरोप था।
फिर एक दोहा है:
“रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार | रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार |”
मगर वह उस मुग़ल खानदान में काम करते रहे जहाँ पर भाइयों ने गद्दी के लिए खून किया और न जाने हजारों की संख्या में खून बहाया और वह उस सेना का हिस्सा रहे जो खून बहाती रही। कविता में रूठे सुजन मनाते रहे और जीवन में खून बहाते रहे।
तुलसी और रहीम दोनों ही समकालीन है, मगर जहाँ तुलसी जन कवि बन गए और इतने महत्वपूर्ण बन गए कि उन्होंने न केवल उस काल में हिंदुत्व नष्ट होने से बचाया जैसा G. F.ANDREWS ने लिखा है “Only in later versions of the epic is Rama portrayed as the incarnation of Vishnu sent down to earth to save mankind। The story, though of course mythical, is very finely told, and has exercised a great influence over the ideas of manhood and womanhood in North India, where this incarnation of Vishnu is chiefly worshipped। The ideal of Sita has been especially elevating। बल्कि आज भी रामचरित मानस ही लोक को जीवित रखे हुए है।
शायद ही किसी मिशनरी की किताब में रहीम के विषय में यह कहा गया हो कि रहीम की कविताओं ने दूरियों को कम किया और उनकी रचनाएं ईसाईकरण में बाधा है।
रहीम को किताबी विमर्श में केवल उन रचनाओं के माध्यम से महान बताया गया जिन रचनाओं का उनके व्यवहारिक जीवन से कुछ भी लेना देना नहीं था। अक्क महादेवी ने जब शिव को अपना पति माना तो अपने पति का घर छोड़ दिया था, मीरा ने कृष्ण को अपना माना तो वह समाज से टकरा गईं, कबीर की तो मृत्यु ही अभी तक सामने नहीं आ पाई कि आखिर उन्हें कैसे मारा गया था और वह नीतिगत दोहे लिखते लिखते अपने जीवन में भी उन्हीं शिक्षाओं को उतारते रहे। इनमें से किसी भी लेखक को उस तरह के उधार के विमर्श की जरूरत नहीं पड़ती जितनी रहीम को! रहीम के निजी जीवन की क्रूरता को दाबकर केवल रचनाओं की रूमानियत पेश की गयी जबकि तुलसी, उनके खिलाफ मिशनरियों ने जो खेल खेलना शुरू किया वह आज तक जारी है।
दोहरा जीवन जीने वाले रहीम के विमर्श पर आज भी कोई प्रश्न नहीं है जबकि तुलसी पर आज भी कथित दलित चिन्तक सवाल उठाने लगते हैं, क्योंकि तुलसी आज भी सबसे ज्यादा समाज को जोड़ने वाले हैं।