कम्युनिस्ट तारेक फ़तेह की मृत्यु पर कट्टरपंथी जश्न पर भारत के कथित प्रगतिशील वर्ग का मौन

कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थन करने वाले पाकिस्तानी विद्वान तारेक फ़तेह का देहांत पिछले दिनों हो गया। यह बहुत ही हैरान करने वाली बात है कि धर्म अफीम है कहकर हिन्दुओं को कोसने वाले भारत के कॉमरेड इस पर मौन रह गए। उनके लिए जैसे इस मृत्यु का कोई मोल नहीं था! ऐसा क्यों था यह समझना बहुत कठिन नही है।
तारेक फ़तेह खुद को भारत की ही पहचान के साथ जोड़े रहे थे और कहीं न कहीं वह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के उसी सिद्धांत पर चल रहे थे जो वास्तव में कथित निष्पक्षता का आधार है।

स्रोत – opindia

तारेक फ़तेह पाकिस्तान में कराची में पैदा हुए थे और जीवन भर यही कहते रहे कि वह पाकिस्तान में पैदा हुए भारतीय हैं। तारेक फ़तेह जो खुलकर इस्लाम की कट्टरता पर बात करते रहे, जो स्वयं को भारत की पहचान के साथ जोड़े रहे और जो यह लगातार रहे कि पाकिस्तान अत्याचार कर रहा है, और जिन्होनें उर्दू को जबरन थोपे जाने पर भी बात की, वह एक कम्युनिस्ट विचारों वाले व्यक्ति थे और वह 1960 से लेकर 1970 के बीच कई बार जेल भी गए थे।

वह पाकिस्तान की बुनियाद की आलोचना करते रहे थे और उन्होंने पाकिस्तान को आतंक की फैक्ट्री भी कहा था। वह लगातार यह कहते रहे थे कि कैसे पाकिस्तान बलूचिस्तान और सिंध के लोगों को परेशान कर रहा है, कैसे अत्याचार कर रहा है। तारेक फ़तेह के तार्किक विचार भारत में बसे कम्युनिस्टों के उस वर्ग को कभी भी पसंद नहीं आए जो इस्लामी कट्टरपंथ के समक्ष घुटने टेक चुका है। तभी वह इस जश्न का विरोध नहीं कर रहा है!

स्रोत – opindia

तारेक फ़तेह के निधन पर कट्टरपंथियों ने जैसे एक जश्न मनाया और यह जश्न उस जश्न से कतई कम नहीं था जो पिछले दिनों एक और कम्युनिस्ट मुस्लिम लेखक अर्थात तसलीमा नसरीन के घुटने की बीमारी को लेकर सोशल मीडिया पर मनाया गया था।

परन्तु दुर्भाग्य की बात यही है कि भारत का कथित लिबरल और प्रगतिशील वर्ग न ही उस समय तसलीमा नसरीन के पक्ष में कुछ बोला था और न ही अब तारेक फ़तेह के निधन पर कट्टरपंथियों के इस जश्न पर बोला है। स्वयं को अल्पसंख्यकों का संरक्षक बताने वाला कम्युनिस्ट वर्ग कभी भी वैश्विक स्तर पर बहुसंख्यक धर्म के विरोध में और वैश्विक स्तर पर अल्पसंख्यक हिन्दू धर्म के विषय में बात नहीं करता है। हर छोटी छोटी बात पर वैश्विकता का तर्क देने वाला कम्युनिस्ट वर्ग अल्पसंख्यक की परिभाषा के विषय में बहुत ही भ्रमित है।

कहा जाए कि भ्रमित नहीं है बल्कि वह वैश्विक रूप से अल्पसंख्यक हिन्दू धर्म के विरोध में है। वह हिन्दू धर्म बनाम अन्य मत करने में आगे रहता है। भारत में वह यह प्रयोग निरंतर कर रहा है। और हिन्दू लोक के प्रति यही घृणा उसे हर उस व्यक्ति से दूर करती है जो भारत की हिन्दू पहचान के विषय में गौरवान्वित अनुभव करता है।

तारेक फ़तेह या तसलीमा नसरीन दोनों ही हिन्दुओं की वह छवि प्रस्तुत करते आए हैं, जिनकी एकदम विपरीत छवि भारत के कम्युनिस्ट नेता वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करते हैं। यह दोनों ही लोग उस कट्टरता का शिकार हुए हैं, जो इन्होनें अपने देशों में अल्पसंख्यकों का समर्थन करने पर अनुभव की थी।

तारेक फ़तेह खुलकर भारत में कांग्रेस के नेताओं की इस बात पर आलोचना करते थे कि वह जमीन से कटे हुए हैं। वह राहुल गांधी के नेतृत्व पर भी बात करते थे और यह कहते थे कि वह राहुल गांधी भारत को नेतृत्व नहीं दे सकते हैं। जबकि भारत के कम्युनिस्टों के लिए राहुल गांधी ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी आलोचना नहीं हो सकती है।
स्वयं को लोकतान्त्रिक कहने वाला भारत का प्रगतिशील लेखकवर्ग मात्र “गांधी” सरनेम या कहा जाए कि गांधी खानदान को लेकर इस सीमा तक संवेदनशील है कि उसकी दृष्टि में भारत पर शासन करने का अधिकार मात्र “गांधी” परिवार को ही है।

परिवार और खानदान प्रेमी तथा जमीन से जुड़ी हुई प्रतिभाओं से भीतर से घृणा करने वाला प्रगतिशील लेखक वर्ग इसलिए तारेक फ़तेह की मृत्यु पर जश्न मनाते कट्टरपंथियों पर मौन धारण करना उचित समझता है क्योंकि वह कहीं न कहीं यह मानता है कि कट्टरपंथी उचित कर रहे हैं। हिन्दू देवी देवताओं की आलोचना में हर सीमा पार करने वाला कथित प्रगतिशील लेखक उस विचार को मानने के लिए ही तैयार नहीं होते हैं, जो उनके विपरीत विचारों के हैं।

जब से प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ यह घोषणा हुई कि यथार्थ ही साहित्य है, जो यथार्थ में दिख रहा है उसका वर्णन ही साहित्य है, उसके बाद से ही कहीं न कहीं साहित्य में हिन्दू लोक से घृणा आरम्भ हुई क्योंकि उसमें वह मूल्य आए जो भारत की आत्मा से एकदम विपरीत थे। धीरे धीरे साहित्य में हिन्दू लोक से घृणा एक स्थाई भाव बन गयी और अब आकर यह घृणा अपने निम्न एवं विकृत रूप में है कि जो भी व्यक्ति स्वयं की हिन्दू लोक की जड़ों से जुड़ा हुआ अनुभव करता है, उसकी मृत्यु या पीड़ा पर कट्टरपंथियों के जश्न को वह प्रगतिशील वर्ग अनदेखा करे, जो स्वयं को अभिव्यक्ति की आजादी का पक्षधर बताता है।

कट्टरपंथियों के इस जश्न पर कथित प्रगतिशील लेखक वर्ग की यह चुप्पी बहुत दुखद है और साथ ही यह इस बात का संकेत भी करती है कि कहीं न कहीं अब कथित प्रगतिशीलता अपने निम्नतम स्तर पर आ चुकी है, जहाँ पर इसका ध्येय मात्र राजनीतिक एजेंडा रह गया है या कहें मात्र हिन्दू लोक की पहचान का विरोध करना रह गया है।

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