जल एवं मिलन

“कितना भीगना चाहती हो?” आकाश ने धरा से पूछा!

“उतना ही जितना भीतर तक समा जाए, तुम्हारा नेह,

भीतर तक तुम्हारी देह!”

आकाश हंसा!

“देह! मेरी देह? क्या देवी को देह से भीगना है!”

धरा सकुचा उठी! वृक्षों से संदेसा भिजवाया

“प्रेम में देह की पृथकता कहाँ होती है देव!”

आकाश ने स्वीकारी धरा की संतुष्टि की प्रार्थना

प्रथम वर्षा से धरा की देह से भरी उमस को बाहर किया,

दूसरी वर्षा से बरस भर दूर रही उसकी सूखी देह को छुआ

तीसरी वर्षा के बाद बह निकला प्रेम का सैलाब,

हर गाँव शहर में भर गए बम्बे,

भर गईं नहरें,

सौन्दर्य से गदरा गयी नदियाँ!

भादौं तक प्रेम से सराबोर करने के बाद आकाश ने पुन: किया प्रश्न

“देवी संतुष्ट हुईं क्या?”

धरा ने कठिनाई से बेसुध आँखें खोली,

संतुष्ट आँखें, हरी चुनरी ओढ़े हुए ताजे ताजे सौन्दर्य से भरी आँखें!

“देवी, कुछ न कहना! तुम्हारी गोद में लहलहाती फसलों के लिए,

जो संतोष है, वह मेरे लिए पर्याप्त है! प्रेम में मौन रहकर ही प्राप्य होता है सब!”

धरा लाज से दोहरी हो रही थी,

कच्ची माटी पर आकाश ने बादलों से जो प्रेम बरसाया था,

वह पूरे बरस के लिए पर्याप्त होगा!

पर समय के साथ कच्ची मिट्टी से पक्के घर बनने की प्रक्रिया में,

खो गया प्रेम का सौंधापन

धरा की संतानों ने इस तरह पाट दिए कुँए,

इस तरह प्रेम कर लिया सीमेंट से,

अब धरा आकाश का प्रेम समेट नहीं पाती!

आकाश भी कहाँ कर पाता है अब खुलकर प्रेम!

न वह भीतर आ पाता है,

प्रेम सौंधेपन में, संतुष्टि की साध लिए ही पूर्णता पाता है!

उधर आकाश अधूरा, इधर धरा अधूरी,

अब उन दोनों के मध्य है न जाने कितनी दूरी,

कंक्रीट के वन प्रेम संदेसा लेकर जा नहीं पाते,

यही कारण हैं आकाश के प्रेम कण धरा पर आ नहीं पाते!

प्रेम अपूर्ण रहता है, तभी आकाश असमय रोता है!

स्त्री हो या धरा पुरुष का पौरुष संतुष्ट कर ही संपन्न होता है

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