स्त्री और चेतना

स्त्री और चेतना
हमारी एक दुनिया थी और था एक इतिहास!
मूक नहीं था, उत्सव थे और था ज्ञान का उल्लास!
स्पंदन था, देह का उत्सव था,
हमने उकेरा था अपने प्रेम और देह दोनों को ही
पन्नों पर!
एवं चेतना तथा स्मृति में कहीं समा गईं थीं!
कहाँ था इस विशाल देश में देह का बंधन,
और यौनिकता कहाँ थी वर्जित?
उन्मुक्त मदनोत्सव था!
एक अट्टाहास सा गूंजता है!
और पुन: हम आ जाते हैं वर्जनाओं के प्रगतिशील
आधुनिक संसार में!
अक्क महादेवी आज प्रगतिशील युग में निर्वस्त्र हो
नहीं कर सकती साहित्य और शिव संग प्रेम साधना!
और हम आधुनिकता का राग गाते हैं!
मेरी पसीने पसीने होती देह पर जैसे रेंगती हैं,
मेरी स्वतंत्र पुरोधा स्त्री चेतनाएं
और उठाती हैं मेरे विचारों की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह!
मैं हतप्रभ हूँ!
आज कोई सुलभा स्वेच्छा से ज्ञान हेतु अविवाहित नहीं रह सकती!
आज कोई सुलभाज्ञान हेतु स्वतंत्र विचरण नहीं कर सकती,
कोई न कोई ज्ञान का व्याघ्र ही उसकी देह को चीरफाड़ कर लेगा,
देह की स्वतंत्रता के नाम पर!
देह की स्वतंत्रता इस देश में धर्मनिरपेक्षता जैसा ही
बौद्धिक छल है!
जो छलता है बार बार स्त्रियों को,
मैं इस देश की स्त्री चेतना को बारम्बार छूने के प्रयास में
वहीं पहुँच जाती हूँ,
जहाँ प्रारब्ध लेकर जाता है!
एक ओर “अबला जीवन तुम्हारी यही कहानी” सुनती हूँ,
और इन्हीं शब्दों को अवंतीबाई ही आकर खोखला करती हैं!
मैं फिर से इन सशक्त स्त्रियों की कथाओं को खोहों से निकालने
के लिए प्रवेश कर जाती हूँ इतिहास में!
तभी एक प्रगतिशील कवि हँसता है और कहता है
“प्रोग्रेसिव लिटरेचर में इन स्त्रियों का स्थान नहीं है,
सुकोमल स्त्री वेदना और अस्मिता हेतु स्त्री रुदन ही प्रोग्रेसिव हैं!
यह तलवार उठाती और अपने राज्य की अस्मिता के लिए
लड़ती स्त्री भी कोई स्त्री है?”
और मेरी आँखों के सामने उसी समय गूंजते हैं,
वह सैकड़ों स्त्री स्वतंत्रता के स्वर,
जिन्होनें रच डाली थी थेरी गाथाएं!
मैं अक्क्बक्क हाथ में मोबाईल थामे खडी रह जाती हूँ!
और अपनी भूमि की स्त्रियों की चेतना को स्वयं में अनुभव करती हूँ,
चुपके से उस संस्कृत से घृणा करने वाले उस प्रगतिशील कवि से कहती हूँ
“मैं प्रगतिशीलता की परिभाषा में फिट नहीं हूँ,
मेरे लिए चेतना का प्रस्फुटन सूर्या सावित्री से आरम्भ है,
उन्नीसवीं शताब्दी के रुदन वाले प्रगतिशील साहित्य से नहीं!”
और देखती हूँ कि चींटियाँ धीरे धीरे मेरी देह से शांत हो रही हैं,
और मेरी आँखों के सामने निर्भीक, निर्वस्त्र अक्क महादेवी अपने शिव
और साहित्य आराधना कर रही हैं,
और पुरुष उनके सम्मुख आदर भाव से खड़े हैं!
क्योंकि हमने समानता का नहीं
संपूरकता का पाठ आज से नहीं युगों युगों से सीखा है!
और सुलभा भी कह रही हैं कि आत्मा में स्त्री पुरुष नहीं है!
इस देश में शास्त्रार्थ की परम्परा रही है,
प्रगतिशील कवि की तरह किसी भाषा से घृणा नहीं थी,
मैंने कंधा झटका और प्रगतिशील कवि से कहा
“मुझे काट देना उस प्रगतिशीलता की परिभाषा से,
जो मेरी जड़ों और चेतना से काट कर अलग कर दे,
चाहो तो साहित्यकार भी न मानना,
पर यह स्वीकार करना मेरे वश में नहीं है कि
चेतना का प्रस्फुटन आज की देन है!
मेरी चेतना ने तो सूर्या सावित्री से, रोमशा से, सीता से,
सावित्री से गुजरते हुए ही यात्रा पाई है

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