शाम हो चुकी थी। एक महीने के अन्दर चुनाव होने वाले हैं दिल्ली में। और सडकों पर कोई हलचल नहीं, जैसे कि कुछ हो ही नहीं! इस बार नीरस से चुनाव लग रहे थे। न ही सड़क पर कुछ हलचल थी और न ही बाहर कुछ शोर। पहले तो ऐसा नहीं होता था, चुनावों की घोषणा होते ही न जाने कहाँ से कितने झंडे निकल आते, बिल्ले बाँटने के लिए लोग आ जाते। बच्चों को रंगीन कागज़ मिलते। कितने रंगीन और जीवंत चुनाव हुआ करते थे। तभी व्हाट्सएप पर किसी मेसेज ने मेरे विचार क्रम में खलल डाला! “यह मुआ व्हाट्सएप भी दुखी किए रहता है!” मैंने भुनभुनाते हुए फोन को उठाया। मेसेज किसी अज्ञात नंबर से था। “मैं आपसे मिलने आ रहा हूँ! कुछ बात करनी है, कृपया चाय बनाकर तैयार रहें। राकेश !”
राकेश ! मैं चौंक गयी! उसे मुझसे क्या काम है? चार साल पहले हुए विवाद के बाद बात खत्म थी उससे! इतनी बदतमीजी के बाद भी उसने महज़ खेद व्यक्त किया था, माफी नहीं! मुझे अभी एक दो लेख तैयार करने थे। चुनावों के बदलते स्वरुप पर मुझे लेख लिखना था और फिर इन चुनावों में स्त्रियों की कम भागीदारी पर एक लेख लिखना था, मगर राकेश के मेसेज ने सारा मूड बिगाड़ दिया! इस सत्यानाश हुए मूड का अब क्या करूं! बेहतर था कि चाय बनाकर रखूं, जिससे उसकी बकवास सुन सकूं! जल्दी जल्दी मैं रसोई की तरफ दौड़ी! लेख के पॉइंट्स बनाकर रख लिए और रात में भेजने के लिए मेसेज कर दिया।
चाय बनाते बनाते मेरे दिमाग में वह दिन घूम रहा था जब वह अचानक से मेरे घर आ गया था। उसे पता था कि मैं महिला अधिकारों के लिए लिखती हूँ, काम करती हूँ! मेरा परिचय उससे उस दिन तक कुछ खास नहीं था। बस एक दिन एक कार्यक्रम में मिला था, मुझे हैरानी हुई थी, कि उसे मेरे बारे में सब पता था। हालांकि अब पच्चीस सालों के फ्रीलांसिंग लेखन के बाद और वह भी महिला और राजनीतिक विषयों पर लिखने के कारण नाम थोडा बहुत था मेरा मगर उतना नहीं कि दूसरे शहर से आया नौजवान एकदम से पहचान जाए। पर मैंने सहज लिया था और कार्यक्रम में उसने साधिकार दीदी बोलते हुए मेरा फोन नंबर मांग लिया था. और फिर एक दिन अचानक से मेरे घर पर आ धमका था राकेश! वह एक छोटे शहर से सपनों की तलाश में आया एक लेखक कम एक्टिविस्ट था। उसके पास कई योजनाएं थीं, उसके पास नए काम करने की ऊर्जा थी और पूरी प्लानिंग थी कि कैसे और कब करना है और सरकार बनने के बाद उसे पता था कि किससे और कैसे काम लेना है। मगर मुझ जैसी के घर क्यों आया? मैं उसके क्या काम आ सकती थी? मैं उसे उस दिन भी भांप नहीं पाई थी। वह साधिकार आकर सोफे पर पसर गया था। “दीदी, चाय नहीं पिलाओगी!” उसने बहुत प्यार से मुझसे एक रिश्ता जोड़ लिया था। “हाँ क्यों नहीं!” मैं भी अपने नए नवेले भाई के लिए चाय बनाकर ले आई थी।
बैठा बैठा वह न जाने कहाँ कहाँ की बातें करता रहा। अपनी पत्नी, अपने बेटे और न जाने किसके बारे में। आधे घंटे में ही वह मुझसे एक बड़ी दीदी का नाता जोड़ चुका था। बातों बातों में उसने अपने जीवन में किए गए सारे संघर्षों के बारे में बताया। कि कैसे वह एक छोटे शहर का लड़का था जिसे लेखन और एक्टिविज्म में नाम करना था। उसे एक प्रोग्राम बनाना था। ज्वलंत मुद्दों को उठाकर विख्यात और सामान्य हर प्रकार के लोगों के विचारों को सम्मिलित करना था। नई सरकार आए हुए एक वर्ष हो गया था। और राकेश का उठना बैठना उन लोगों के साथ था, जो उसे अवसर दिलवा सकते थे। वह बोलता जा रहा था और मैं बैठी बैठी उसका चेहरा हैरानी से देखती जा रही थी, उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके गोरे चेहरे को और गोरा बना रही थीं. काल्पनिक सफलता की चमक उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी।
“दीदी, आप भी बताइयेगा न अगर किसी को जानती हों तो!” उसने भाई का रिश्ता और प्रगाढ़ करते हुए हक़ से कहा। अब तक मैं उसके संघर्ष से प्रभावित तो हो चुकी थी, मदद भी करना चाहती थी, मगर जैसी मदद वह चाहता था शायद वैसी नहीं! मैंने बात का रुख बदलते हुए पूछा “अच्छा, किन किन विषयों पर काम करने का सोचा है?” चाय पीते पीते वह अचानक से चौंक गया! ऐसा लगा जैसे उससे कुछ असहज करता हुआ पूछ लिया हो! “तुम टॉक शो बनाना चाहते हो, तो कुछ टॉपिक तो सोचे होंगे ही न! मुझे बताओ, जिससे हम मिलकर काम कर सकें, मैं तुम्हें कई ऐसे लोग बता सकती हूँ, जो इन विषयों के विशेषज्ञ हों!” पर वह अनमना सा चाय पीता रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसे मेरी बात बदलना अच्छा नहीं लगा।
“दीदी, एक बार प्रोग्राम एप्रूव हो गया न सरकारी किसी भी चैनल पर, तो टॉपिक तो मिल ही जाएंगे। और बोलने वाले भी। कितने ही लोग हैं, जो टीवी पर आने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार होते हैं। एक दो आप जिन्हें बताएंगी उन्हें बुला लेंगे और एक दो, ऐसे लोगों को बुला लेंगे! खर्च निकल आएगा!” वह बोलता जा रहा था। महत्वाकांक्षा से चमकता चेहरा अचानक से मुझे धूमिल लगने लगा था। मन में कुछ छन से टूट गया! अगर उसे शॉर्टकट ही करना था तो मेरे पास क्यों आया है? मैं कहाँ किसी को जानती हूँ, और जानती भी हूँ तो ऐसे हेराफेरी के कामों के लिए अपना नाम खराब नहीं करना! मैं चाय पीती रहीं! वह भी बार बार यही बोलता रहा “दीदी, आप जिसे बताएंगी उसे बुलाएंगे, बस एक बार स्लॉट मिल जाए!”
चाय पीकर वह चला गया था, मगर मेरे सामने सवालों का अम्बार लगाकर! लगभग हर दल के लोग मित्र थे मेरे। मगर आज तक मैंने अपने किसी भी घर के सदस्य के लिए भी नियमों से परे कोई मदद नहीं माँगी थी, तो ऐसे में राकेश की हिम्मत भी कैसे हुई। पर मुझे पता था कि ऐसे गुस्से का फायदा नहीं! ये शॉर्टकट वाले ज्यादा दिन सफलता सम्हाल नहीं पाते! मगर अगले ही दिन फेसबुक पर मैंने अपनी फोटो उसके साथ देखी। मुझे एक बार फिर से धक्का लगा क्योंकि मैं अपनी तस्वीरें किसी और के साथ सहज नहीं पोस्ट करती थी। बेहद निजी लोगों के साथ तस्वीरें मेरी फेसबुक पर थीं। मगर राकेश ने यह सीमा तो तोड़ी ही बाद में लोगों ने बताया कि उस फोटो का सहारा लेकर उसने कुछ काम भी कराने चाहे। मैंने उससे एक दिन फोन किया तो बहुत ही बेशर्मी से उसने जबाव दिया था कि दीदी खेद है, अगर आपको ऐसा लगा, मगर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। ”
इस बेशर्मी भरे जबाव के बाद मैंने उससे सारे संपर्क तोड़ लिए थे। क्योंकि एक दो छोटे छोटे काम उसने मेरे भाई बहन के रिश्ते का हवाला देकर करा लिए थे। फिर धीरे धीरे सुनने में आया कि उसका शो भी एप्रूव नहीं हुआ था। उसने जो सैंपल एपिसोड जमा किया था उनमें बहस करने वालों ने काफी तथ्यगत गलतियां की थी, जिसका मुझे अंदेशा था ही, और मैंने उसे आगाह भी किया था। पर उसके लिए जीवन के और सफलता के मायने सारे शॉर्टकट ही थे। उसके किसी भी शॉर्टकट का कोई फायदा नहीं हुआ और उसका काम नहीं बना! और सुनने में यह भी आया कि इसी कारण वह इस सरकार के खिलाफ उलटा सीधा लिखने लगा था। देखते ही देखते वह विपक्षी दलों की बात रखने वाला मुख्य पत्रकार बन गया था। खोजी था, जुनूनी था, छोटी छोटी बात उखाड़ने लगा था! तथ्यों की बारीकी में जाकर तहकीकात करता, तो खबर भी रोचक होती। खुलकर वह खेल रहा था। और इन सब व्यवस्तताओं में कभी कभी मेसेज भेजता रहता।
मैं व्हाट्सएप पर उसके मेसेज देखती और डिलीट कर देती। कोई इतना कैसे बदल सकता है, मैं हैरान होती जाती। मगर दुनिया हैरानी के ही तोहफे झोली में डालती है। मैं धीरे धीरे अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त होती गयी और देखते देखते दोबारा चुनाव आ गए। राकेश इस बार विपक्ष की तरफ से काफी मुखर था। आरटीआई लगवा कर नई नई जानकारी माँगता, प्रेस कोंफ्रेंस करता और सरकार को कठघरे में खड़ा करता! हालांकि अधिकतर वह अपने पूर्वाग्रह के चलते ऐसी कहानी बनाता कि वह सत्य साबित न हो पाती, परन्तु इससे उसके जूनून पर कोई असर नहीं पड़ा था। आज चार साल बाद वह मेरे घर क्यों आ रहा है, मैं समझ नहीं पा रही थी। मन इसी उधेड़बुन में था कि दरवाजे की घंटी बजी! दरवाजा खोला तो देखा राकेश की चमचमाती गाड़ी मेरे घर के सामने खड़ी है और वह मेरे पैरों पर झुका है।
“दीदी, अब माफ़ भी कर दीजिए! क्या सारी ज़िन्दगी खफा रहेंगी! आपकी फोटो एक बार क्या इस्तेमाल किए आपने तो हमें एकदम पराया ही कर दिया। ” उसने अपने उलाहनों का पिटारा खोल दिया था।
“कोई बात नहीं, तुम भीतर आओ। चाय तैयार है!” मैंने उससे अंदर आने के लिए कहा और दरवाजा बंद किया।
चाय लेकर जब मैं ड्राविंग रूम में आई तब वह अपने मोबाइल में व्यस्त था। “कहो कैसे आना हुआ?” मैंने पुछा
“कुछ नहीं दीदी, बस आपका आशीर्वाद चाहिए! मैं घर जा रहा हूँ!” उसने चाय का कप उठाते हुए कहा
“घर!” मेरे हाथ से चाय का कप गिरते गिरते बचा!
“हाँ दीदी, मैं लोकसभा का चुनाव लड़ने जा रहा हूँ! आपको पता है न कौन खड़ा है इस बार इस पार्टी की तरफ से, अजय जी!” उसने गुस्से और नफरत दोनों को जैसे शब्दों में चबाते हुए कहा! उसके चेहरे से बदले का भाव था, किसी को कुचल देने का भाव! मैं इस नफरत से अन्दर तक जैसे जल गयी
“अजय जी!” मैं अब हैरान और परेशान थी!
“जी, उन्होंने मेरा शो नहीं एप्रूव किया, उन्होंने मेरा कैरियर बनने से पहले बिगाड़ा, अब मैं उनका खेल बिगाडूँगा। ” वह बोलता जा रहा था
“मगर चुनाव का खर्चा, माने तुम तो इतने अमीर नहीं हो और किस पार्टी से?” मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे,।
“दीदी, खर्च की चिंता नहीं है, मुझे बस खड़ा होना है किसी भी छोटे मोटे दल से, कौन सा जीतना है! पैसों के लिए क्राउड फंडिंग शुरू कर दी है, और सुनिए, बस इतना वोट काट दूं कि अजय जी हार जाएँ! फिर कोई भी जीते क्या फर्क पड़ता है! है तो हम जाति भाई न! जाति के वोट कट जाएँ बस!” वह बोलता जा रहा था और मैं एक बार फिर से ठगी मुद्रा में बैठी थी। मैं उससे बहुत कुछ पूछना चाहती थी, मगर पूछ न पाई, मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी, मगर कह न पाई!
“मैं आपकी फोटो नहीं खींचूंगा इस बार! बस आशीर्वाद लेने आया! सफलता का आशीर्वाद दीजिए” उसने चाय का कप मेज पर रखा और मेरे पैरों की तरफ झुका
“जो सच है और जो धर्म है वह जीते!” मैं उस समय गांधारी बन गयी थी, जब दुर्योधन आया था महाभारत का युद्ध शुरू होने से पहले विजय का आशीर्वाद मांगने में! मुझे पता था कि वह जीतने नहीं किसी को छल से हराने जा रहा था! सच हर युद्ध में महाभारत का कुछ न कुछ होता ही है, माँ ठीक ही कहती थी।