तीन वर्ष पूर्व 16 अप्रेल ही था, जब दो निर्दोष साधुओं की हत्या पुलिस के सामने कर दी गयी थी। महाराष्ट्र के पालघर में हुई इस घटना ने उन सभी को स्तब्ध करके रख दिया था जो साधुओं का आदर करते थे और जो यह सहज सोच भी नहीं सकते थे कि कोई निशस्त्र साधुओं को इस प्रकार पुलिस के सम्मुख मार सकता है। लेकिन उन्हें मारा गया था, उन्हें एक बार नहीं कई बार मारा गया, और विमर्श में तो वह अभी तक मारे ही जा रहे है!
और उन्हें स्मरण भी प्रतिक्रियात्मक रूप से किया जा रहा है। उस दिन जब वह घर से निकले होंगे तो यह सोचकर नहीं निकले होंगे कि वह वापस नहीं आएँगे और उनकी हत्या इतने सारे पुलिस वालों के सामने ही कर दी जाएगी। पुलिस वाले ही कहीं न कहीं स्वयं ही भीड़ के सामने ले जाएंगे।
16 अप्रेल 2020, 70 साल के साधु कल्पवृक्ष गिरी और 35 साल के साधु सुशील गिरी के साथ उनके ड्राइवर नीलेश तेलगाडे तीनों ही उस घृणा का शिकार हो गए थे, जो लगातार कई वर्षों से विमर्श के माध्यम से साधुओं के विरुद्ध आम जनमानस में भरी जा रही है। हालांकि अब इस जघन्य हत्याकांड की जांच सीबीआई करेगी, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि हम लोग पूरी तरह से इस जघन्य घटना को भूल चुके हैं।
विमर्श में हम उन साधुओं की देह से रिसता हुआ खून भूल चुके हैं और यह भी कहीं न कहीं हमारे मस्तिष्क से निकल गया है कि न्याय के लिए बात करती रहनी चाहिए। यह बात सत्य है कि मामले की जांच सीबीआई करेगी, फिर भी इस मामले को विमर्श में या अपनी चर्चा में जीवित रखें, जिससे यह जान सकें कि जांच कहाँ तक पहुँची है।
पालघर में साधुओं पर हमला और उनकी हत्या साधारण घटना नहीं है, बल्कि वह धार्मिक पहचान की ह्त्या का ही एक प्रयास है। यह नहीं भूलना चाहिए कि यह साधु संत ही हैं, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर धर्म की ध्वजा को अक्षुष्ण रखते हैं। यह साधु संत ही थे, जिन्होनें गहन अन्धकार के समय में अर्थात जब मुगल काल के अत्याचार हिन्दुओं की धार्मिक पहचान को नष्ट करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे थे, भक्ति की मशाल को जलाए रखा।
उन्होंने प्रभु श्री राम एवं श्री कृष्ण को अपनी रचनाओं में पुन: गढ़ा। मंदिर तोड़े जा रहे थे, तो उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से हृदय में ही नए मंदिर बना दिए। उन्होंने हृदय में मंदिरों की स्मृतियों को जीवित रखा, जिससे चेतना की स्मृतियों में मंदिर रहे और जब समय अनुकूल हो तो जो टूटे मंदिर हैं, वह अपने वैभव के साथ पुन: स्थापित हों।
यह साधुसंत ही हैं जो पूरब से लेकर पश्चिम एवं उत्तर से लेकर दक्खिन तक एकात्मकता का भाव विस्तारित करते हैं। वह बताते हैं कि चाहे ऊपर कैसा भी देह का चोला हो, भीतर तो सब प्रभु श्री राम, महादेव, श्री कृष्ण अथवा देवी माँ के भक्त हैं। वह एक हैं। साधु संत ही उन्हें सच्ची एकता का दर्शन कराते हैं।
परन्तु विमर्श में यही साधु खलनायक बनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं। फिल्मों, धारावाहिकों एवं अब आकर ओटीटी के माध्यम से एक ऐसी छवि का निर्माण कर दिया गया है, जिसमें साधुओं के प्रति घृणा का विस्तार ही होता है। फ्रॉड करना हो तो साधु, मजाक उड़ाना हो तो साधु या फिर अन्य कोई भी अपमानजनक कृत्य। इतने वर्षों से इस धीमे जहर के चलते केवल उन क्षेत्रों में ही नही जो मिशनरी के प्रभाव में हैं, जैसा पालघर के विषय में कहा जा रहा है, बल्कि आम लोगों में भी साधुओं के प्रति एक हिकारत का भाव आ जाता है।
यही कारण है कि जब साधुओं का अपमान होता है या फिर साधुओं की इस प्रकार पुलिस के सामने जनता हत्या कर देती है और एक प्रकार से यह तक स्थापित करने का प्रयास होता है कि, यहाँ पर साधु नहीं आ सकते। यहाँ पर साधुओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। क्योंकि एक बार फिर से यही सब कुछ दोहराने का प्रयास किया गया था, जिसे लोगों की सक्रियता ने विफल कर दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि कब तक इसी विमर्श के तले हिन्दू साधु संत अपराधी घोषित होते रहेंगे कि वह बच्चा चुराते हैं या फिर अपराध करते हैं। जो लोग हिन्दू साधु संतों की यह छ्ह्वी बनाते हैं, मुझे विश्वास है कि वह कभी भी बच्चों के साथ किए गए उन अपराधों पर मुंह नहीं खोलते हैं, जो अन्य मत के प्रचारक करते हैं एवं इंटरनेट पर तथा मीडिया में भी ऐसे आंकड़े बहुतायत में उपलब्ध हैं। आए दिन पोप क्षमा मांगते रहते हैं। परन्तु यह रिलीजियस मार्केटिंग ही है और विमर्श ही है, जिसके कारण आज तमाम पाप हिन्दू साधुओं के कंधे पर धर दिए जाते हैं।
चूंकि हमारा विमर्श नहीं है, विमर्श में हिन्दू साधु संत हत्यारे घोषित हो चुके हैं, अत: उनकी इस प्रकार हत्या पर कोई मजबूत आवाज नहीं उठती। जब यह विमर्श उत्पन्न होता है कि हिन्दू साधु संत अपराधी हैं, तो सन्यासी विद्रोह की कहानी क्यों नहीं सामने आती? क्यों नहीं वीरता की वह तमाम गाथाएं सामने आती हैं जिन्होनें अंग्रेजों को यह षड्यंत्र रचने के लिए विवश कर दिया कि हिन्दू साधु संतों को विमर्श में ही पराजित कर दिया जाए।
पालघर के साधुओं की हत्या को आज पूरे 3 वर्ष हो गए हैं, परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे हम ही उन्हें विमर्श में नेपथ्य में फेंक रहे हैं।
जब उन्हें स्मरण करने का दिन है, उस दिन विमर्श किसी और घटना पर गढ़ रहे हैं। विमर्श में जीवित रखने के स्थान पर स्वयं को खलनायक घोषित कराने के दूसरे षड्यंत्र का कहीं न कहीं हिस्सा बन रहे हैं।