25 जून 1990: गिरिजा टिक्कू की हत्या: दिलीप कौल की कविता, जो साहित्य में जीवित रखे है इस घटना को

25 जून 1975 तो सभी को याद है और सभी याद कर रहे हैं, मगर 25 जून को एक और घटना हुई थी, जिसे स्मरण करना और भी अधिक आवश्यक है। यह घटना है गिरिजा टिक्कू की हत्या, जो 25 जून 1990 को घटित हुई थी। हत्याएं जैसी घटनाओं पर लोग बात करने से हिचकते हैं, क्योंकि उसे क़ानून एवं व्यवस्था का मामला बता दिया जाता है, परन्तु गिरिजा टिक्कू की हत्या वह घटना है, जो एक विमर्श को जन्म देती है और उसका विस्तार करती है।

जो यह बताती है कि हत्या इतनी भी जघन्य हो सकती है, यह घटना उन तमाम हत्याओं की श्रृंखलाओं को आगे बढाती है, जो भारत में मध्यकाल से हिन्दुओं की साथ होती आ रही थीं।

जब मजहब न क़ुबूल करने पर सिरों को काट लिया जाता था।

गिरिजा टिक्कू मजहबी आतंक का शिकार हुई थीं। वह एक स्कूल में लैब सहायिका के रूप में कार्यरत थीं। आतंक के दौर में वह जम्मू आ गयी थीं। मगर 11 जून 1990 को अपना वेतन लेने के लिए स्कूल गयी थीं,

और वहीं पर वह उस आतंक का शिकार हो गईं, जो घाटी से कश्मीरी हिन्दुओं को निकाल चुका था, और रालिव, तस्लीव या गालिव के नारे लगातार लगाए जा रहे थे।

गिरिजा टिक्कू का अपहरण कर लिया गया, और फिर उनके साथ कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया गया। इसके बाद भी जब मन नहीं भरा तो उन्हें लोगों के सामने ही लकड़ी काटने वाली आरा मशीन से जिंदा ही दो टुकड़ों में काट डाला गया था।

इसका दर्द कोई अनुभव ही नहीं कर सकता है। कोई भी जिंदा स्त्री के चीरे जाने की कल्पना से ही सिहर उठेगा, मगर गिरिजा के साथ यह हुआ!

गिरिजा टिक्कू की इस जघन्य हत्या पर प्रिय कवि दिलीप कौल की कविता को हम सभी को पढ़ना चाहिए, जिससे यह पीड़ा हर चेतन व्यक्ति की स्मृति में जीवित रहे!

हाल ही में आई फिल्म कश्मीर फाइल्स में इस दर्दनाक दृश्य को दिखाया गया था। दिलीप कौल की कविता में वह क्षोभ, क्रोध, आक्रोश सब कुछ दिखाई देता है, जो ऐसी घटना पर उत्पन्न हो सकता है।

कविता के माध्यम से एक बार फिर से 25 जून 1990 की स्मृति को ताजा करते हैं, जिससे भूलें नहीं हम!

सर के बीचोंबीच

चलाई गई है आरी नीचे की ओर

आधा माथा कटता चला गया है

आधी नाक

गर्दन भी आधी क्षत विक्षत सी

बिखर सी गई हैं गर्दन की सात हड्डियां

फिर वक्ष के बीचों बीच काटती चली गई है नाभि तक आरी

दो भगोष्ठों को अलग अलग करती हुई

दो कटे हुए हिस्से एक जिस्म के

जैसे एक हिस्सा दूसरे को आईना दिखा रहा हो

………………………………।।

दोनों हिस्सों पर

एक एक कुम्हालाया सा वक्ष है

जैसे मुड़ी तुड़ी पॉलिथीन की थैली

नहीं जैसे एक नवजात पिल्ले का गला घोंटकर

डाल दिया गया हो

एक फटे पुराने लिहाफ़ से निकली

मुड़ी तुड़ी रुई के ढेर पर ।।।

ये पंक्तियाँ देह में सिहरन उत्पन्न करती हैं। यह कल्पना ही दर्द के कारण आत्मा कंपा देती है कि एक जिंदा देह को कैसे आरी से काटा होगा? पीड़ा के अथाह सागर का अनुमान लगाना ही असंभव है, परन्तु दिलीप कौल इसे लिखते हैं, जिससे कि लोग जानें, पर यहाँ पर शून्य है! मौन का शून्य! आम पाठक के पास यह दर्द जा ही नहीं रहा! आम पाठक बस यही पढ़ रहा है कि कश्मीर से विस्थापित होकर जम्मू चले गए कश्मीरी पंडित, जगमोहन ने भगा दिया?

क्या कोई भी समुदाय मात्र किसी के कहने पर चला जाएगा कहीं? दिलीप कौल की इसी कविता पर हम आते हैं, तो देखिये कि उन्होंने क्या लिखा है? उन्होंने लिखा है

एक हिस्से की एक आंख में भय है

और दूसरे हिस्से की एक आंख में पीड़ा……………………

……………………

देखो यह शव परीक्षण की भाषा नहीं है

यहां उपमाओं के लिए

कोई स्थान नहीं है।।।

पर क्या करें जब बीच से दो टुकड़ों में बंटा शव हो

तो इच्छा जागृत होती ही है समझने की कि

कैसा लगता होगा वह अस्तित्व

दो टुकड़ों में बंटने से पहले

कल्पनाएं खुद ही उमड़ पड़ती हैं

और भाषा बाह्य परीक्षण और आंतरिक परीक्षण की शब्दावलियों को लांघकर

उपमाओं के कवित्व को छूने लगती है

सच में, क्या हमने कभी कल्पना भी की कि कैसा अनुभव हो रहा होगा उस समय? भय और पीड़ा? कहाँ और कितनी? और क्या पोस्टमार्टम करते समय किसी को यह देखकर उल्टी नहीं आ गयी होगी कि कैसे आधा आधा काटा गया? क्या कोई उपमा दी भी जा सकती है? परन्तु हिन्दुओं के दर्द के इस उदाहरण को साहित्य में ऐसे कर दिया गया, जैसे एक साधारण घटना रही हो!

क्षमा करें औरत थी,

बीस बाईस साल की

इसके कान ऊपर की ओर भी छिदे हुए हैं

सुहाग आभूषण अटहोर पहनने के लिए

(अटहोर ज़ोर से खींच लिया गया है क्योंकि कानों के ऊपरी छेद

कट कर लंबे हो गए हैं।)

कोष्ठक में मेरी यह व्यावसायिक टिप्पणी है परन्तु

कल तक सब के साथ इन कानों को भी फाड़ती थीं भुतहा चिल्लाहटें

“ हम क्या चाहते आज़ादी

और दोनों कानों के श्रवण स्नायुओं से होते हुए

इन चिल्लाहटों का आतंक पहुंच गया होगा

मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों में

जो कि अब अलग अलग पड़े हैं

खोपड़ी के दो अलग अलग हिस्सों में

हर गोलार्द्ध में अपने अपने हिस्से का आतंक है

पीड़ा है

लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि

आरे पर काटे जाने से पहले ही वह मर चुकी थी

क्योंकि जिस्म के कटे हुए हिस्सों से

ख़ून ही नहीं बहा

हृदय का धड़कना तो पहले ही बंद हो चुका था

उसको महसूस ही नहीं हुई होगी वह असीम पीड़ा।।

फिर जो वह लिखते हैं, उसे ही समझने की आवश्यकता है! कि उसे जानबूझकर ही काटा गया था। ऐसा नहीं था कि उसे साधारण मृत्यु नहीं दी जा सकती होगी?  परन्तु ऐसा नहीं किया गया, उसे जानबूझकर क्रूरतम मृत्यु दी गयी जो सदियों से कट्टरपंथी इस्लाम का मुख्य चेहरा रही है!

मूर्ख हो तुम

उसे तो दो टुकड़ों में काटा ही इसलिए गया था

कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा

तुम बोलो न बोलो

कान सुनें न सुनें

आरी चलती रहे खोपड़ी को बीच में से काटकर पहुंचे भगोष्ठों तक

कि तुम्हें याद रहे

मातृत्व का राक्षसी मर्दन

गिरिजा टिक्कू की इस बलिदान को हमेशा स्मरण रखना चाहिए, क्योंकि यही बलिदान बच्चियों को उस सत्य की ओर ले जाएगा, जिसे वामपंथी विमर्श छिपाने का प्रयास करता है!

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