भारत के कथित प्रगतिशील साहित्यकारों एवं कथित जनवादी एवं कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों में ऐसे शासकों से प्यार करने की होड़ है, जिन्होनें जमकर हिन्दुओं की हत्याएं कीं और यही नहीं अपने ग्रंथों में वर्णित कार्यों को भी ऐसे ही शासकों के प्रति समर्पित कर दिया गया है। यह कैसी आत्महीनता है? यह कैसा आत्महीनता से भरा हुआ बोध है कि वह अपने ही इतिहास को दूसरों को समर्पित कर बैठे हैं?
आज अर्थात 22 मई 1545 को शेरशाह सूरी की मौत कालिंजर के किले में विस्फोट के चलते हो गयी थी। शेरशाह सूरी ने हुमायूं को भारत से भगाया था और फिर भारत में लगभग पांच वर्षों तक शासन किया था, भारत का इतिहासकार एवं कथित उदार साहित्यकार वाला वर्ग पूरी तरह से शेरशाह सूरी के प्रति नतमस्तक है और इतना ही नहीं उसके पांच वर्ष के कार्यकाल में ही उस महान पथ का निर्माण करने वाला प्रमाणित कर देते हैं, जिसका उल्लेख न केवल इंडिका में बल्कि उत्तरपथ के रूप में पाणिनि भी करते हैं।
इस विषय पर कई लेख मैंने hindupost और indiaspeaksdaily पर लिखे हैं, जिनमें इंडिका से तथ्यों को प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही कई प्रश्न और उभरते हैं। पहले यह जानते हैं कि यह ग्रांड ट्रंक रोड, जिसे यह कहा जाता है कि शेरशाह सूरी ने बनाया था, वह कितनी बड़ी है और कहाँ तक है? इसका उल्लेख मेगस्थनीज ने कैसे किया है?
शेरशाह सूरी ने हुमायूं को कन्नौज के पास युद्ध में वर्ष 1540 में पराजित किया था कालिंजर के किले में वह वाढ 1545 में मारा गया था।
अर्थात उसके पास मात्र पांच वर्ष का शासन था और उसमें से भी वह एक वर्ष तक कालिंजर के किले को जीतने में लगा रहा था। शेष चार वर्षों तक तमाम तरह के विद्रोहों से जूझता रहा था! अब वह इतने कम समय में उस पथ का निर्माण कैसे कर सकता था जिसे संस्कृत में उत्तरपथ बोला जाता था, और जिसका उल्लेख पाणिनि ने किया, जो काबुल से कलकत्ते तक जाता है?
इंटरकोर्स बिटवीन इंडिया एंड द वेस्टर्न वर्ल्ड, एच जी रौलिंसन , कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस 1916 (INTERCOURSE BETWEEN INDIA AND THE WESTERN WORLD, H। G। RAWLINSON, Cambridge University Press 1916) में इंडिका के माध्यम से मेगस्थनीज द्वारा उसी मार्ग का वर्णन है, जिसे किसी और के नाम पर प्रचारित किया गया है। इसमें लिखा है “मेगस्थनीज ने जैसे ही भारत में प्रवेश किया, वैसे ही जिसने उसे सबसे पहले प्रभावित किया, वह था शाही मार्ग, जो फ्रंटियर से पाटलिपुत्र तक जा रहा था।
उसके बाद वह इस पूरे मार्ग का वर्णन करते हैं। इसमें लिखा है “यह आठ चरणों में बना हुआ था और वह पुष्कलावती अर्थात आधुनिक अफगानिस्तान से तक्षशिला तक था: तक्षशिला से सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक था; उसके बाद व्यास नदी तक था, वहीं तक जहां तक सिकन्दर आया था, और फिर वहां से वह सतलुज तक गया है, और सतलुज से यमुना तक। और फिर यमुना से हस्तिनापुर होते हुए गंगा तक। इसके बाद गंगा से वह दभाई (Rhodopha) नामक कसबे तक गया है और उसके बाद वहां से वह कन्नौज तक गया है।
कन्नौज से फिर वह गंगा एवं यमुना के संगम अर्थात प्रयागराज तक जाता है और फिर वह प्रयागराज से पाटलिपुत्र तक जाता है। राजधानी से वह गंगा की ओर चलता रहता है।”
संभवतया उसके आगे मेगस्थनीज नहीं गए इसलिए इंडिका में यहीं तक का वर्णन है। उत्तरपथ और ग्रांड ट्रंक रोड का चित्र देखें:
हिन्दू बेटियों को बाजार में बेचने वाला और बेटों को हिजड़ा बनाने वाला शेरशाह सूरी:
जिस शेरशाह सूरी पर साहित्यकार इस सीमा तक फ़िदा हैं, उसने गद्दी पर बैठते ही हिन्दुओं को मारा था। रायसेन पर आक्रमण किया था और जब उसने देखा कि वह राजपूतों से वीरता से नहीं जीत सकता तो उसने छल और विश्वास घात का सहारा लिया था। राजा पूरनमल ने जब यह देखा कि विश्वासघात के कारण वह घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी प्रिय रानी रत्नावली की गला काटकर हत्या कर दी जिससे शेरशाह सूरी की सेना के हाथों जिंदा न लग सके। और फिर राजपूत योद्धाओं ने यही किया। उन्होंने अपने परिवार वालों की हत्या कर दी, क्योंकि उन्हें पता था कि यदि गलती से भी कोई हिन्दू लड़की उनके हाथों में पड़ गयी तो क्या करेंगे वह!
THE HISTORY OF INDIA, BY ITS OWN HISTORIANs – THE MUHAMMADAN PERIOD में सर एम एम इलियट TARTKH-I SHER SHAHI के हवाले से लिखते हैं कि “जब हिन्दू अपनी स्त्रियों और परिवारों को मार रहे थे तो अफगानों ने हर ओर से हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। पूरनमल और उनके साथी बहुत वीरता से लड़े परन्तु वह पराजित हुए और पूरनमल की एक बेटी और उनके बड़े भाई के तीन बेटे अफगानी सेना के हाथों जिंदा लग गए तो बेटी को तवायफ बना दिया और बेटों को हिजड़ा बना दिया, जिससे राजपूतों का वंश समाप्त हो जाए।” (! THE HISTORY OF INDIA, BY ITS OWN HISTORIANs – THE MUHAMMADAN PERIOD पृष्ठ – 417)।
फिर उसके बाद शेरशाह ने मारवाड़ पर आक्रमण किया और उसे लगा कि वह आसानी से जीत जाएगा। पर ऐसा नहीं हुआ। राजा मालदेव और शेरशाह सूरी की सेनाएं आमने सामने रहीं और राजा मालदेव की सेना देखकर वह साहस नहीं जुटा पाया। यहाँ भी उसने छल किया और फूट डालने के लिए कुछ जाली पत्र मालदेव की सेना में डलवा दिए,जिसका सार यह था कि मालदेव की सेना राजा को शेरशाह के हवाले कर देगी, और ऐसा सुनते ही वह घबरा गया और चला गया। हालांकि राजा को उनके सरदारों ने आश्वास दिया, पर वह नहीं रुके और अपनी सेना लेकर चले गए। इतना होने के बाद शेरशाह को लगा कि उसकी जीत अब तो सुनिश्चित है क्योंकि राजपूत वापस चले गए हैं। मगर फिर दो राजपूत सरदारों जैता और कूम्पा ने युद्ध करने का निश्चय किया।
एक ओर थी मात्र दस हज़ार की राजपूत सेना और दूसरी ओर शेरशाह की अस्सी हज़ार की सेना। मगर भयानक युद्ध हुआ और गिरी-सुमेल के युद्ध में अफगान सेना लगभग हार की कगार पर पहुँच गयी थी। मगर कूम्पा और जैता के माने जाने की खबर सुनकर शेरशाह की जान में जान आई और उसने कहा “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली की सल्तनत गँवा देता!”
और उसके अगले ही वर्ष वह कालिंजर के किले पर आक्रमण के दौरान बारूद के गोले का शिकार हो गया। और उसके जीवन और शासन का अंत हो गया, तो मात्र पांच वर्ष में क्या वह इतनी लम्बी सड़क बना सकता था? आज जब इतनीतकनीक उन्नत है, तब सम्भव नहीं है,तो तब कैसे संभव हो सकता था? मगर अपने ही इतिहास के प्रति हीनता बोध से भरे हुए इतिहासकार और कथित प्रगतिशील एवं जनवादी साहित्यकार उस आदमी को नायक ही नहीं बनाते हैं, बल्कि अपनी ही उपलब्धियों का श्रेय दे देते हैं, जिसने हिन्दुओं पर अत्याचार किए? हिन्दुओं को मारा? और बेटियों को बाजार में बेचा!