पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रतिभागिता की, जिसमें मैंने हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के मिशनरी द्वारा किए गए भाषांतरण की बात की थी। कई बार इन भाषांतरणों में ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ अटक रहा है, खटक रहा है!
दरअसल यहाँ पर वह शब्दों की अवधारणाएं सम्मुख आती हैं, जो उसस्थान के धर्म से जुडी होती हैं। यह भी हो सकता है जो अवधारणाएं हिन्दुओं की हैं, वह अवधारणा किसी और मत से जुड़े लोगों की नहीं हो सकती हैं। जो हिन्दुओं के लिए पवित्र हैं, वह दूसरों के लिए पवित्र कैसे हो सकते हैं? ऐसे कई उदाहरण हैं।
जैसे प्रसव को पवित्र मानना। भारतीय दृष्टि में ही संभव है जहाँ पर प्रसव का अर्थ सृष्टि का अनुभव करना है।
जबकि इसे ईसाई रिलिजन में देखेंगे तो यह पाएंगे कि प्रसव की पीड़ा उसे दंड स्वरुप प्राप्त हुई है। जब सांप के बहकावे में आकर ईव ने प्रतिबंधित फल खा लिया था और फिर एडम और ईव दोनों को ही पैराडाइज छोड़कर धरती पर जाना पड़ा था। अत: ईश्वर ने दंड स्वरूप ईव अर्थात वुमन को यह दंड दिया कि मैं तेरे दु:ख और तेरे गर्भवती होने के दु:ख को बढ़ाऊंगा; तू दु:ख के समय सन्तान उत्पन्न करेगी, और तू अपके पति के आधीन रहेगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।
यदि अवतार के जन्म लेने के समय हर्ष पूर्ण प्रसव का वर्णन है, तो क्या बच्चे पैदा होने को दंड मानने वाला विचार, क्या प्रसव की उस अवधारणा को समझ पाएगा? क्या प्रभु के अवतार की अवधारणा को समझ पाएगा?
फिर वह हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों का भाषांतरण करते हुए एक अलग ही रूप प्रदान करने की दिशा में मुड जाएगा, जहां पर उसके अवलोकन होंगे और वह भी उसके रिलीजियस मत के आधार पर! यह हो सकता है कि वह भगवान के अवतार के शारीरिक गुणों का वर्णन कर दे, परन्तु वह अवधारणा को लिख पाएगा, और वह भी तब जब वह विश्वास नहीं करता तो अर्थ सम्पूर्ण नहीं आ पाएगा!
इसी प्रकार भाषांतरण के माध्यम से जो नैरेटिव बनाए जाते हैं, महत्वपूर्ण इसलिए हैं क्योंकि धार्मिक अवधारणाओं पर आधारित हैं। इसे एक और उदाहरण से समझते हैं, जो बाइबिल के उसी भाग से आया है, जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है!
और वह उदाहरण है नाग का अर्थात सर्प का अर्थत सर्पेंट का!
सनातन में नाग को देव माना जाता है, नागों को मानव के साथ सृष्टि का एक सहायक ही माना गया है। उन्हें मानव का शत्रु नहीं। नाग को महादेव की गर्दन में सुशोभित किया गया है। यहाँ तक कि जब प्रलय से पहले मनु नौका का निर्माण कर रहे हैं और शतरूपा इस ऊहापोह में हैं कि किसे किसे बचाया जाए, तो वह कहती हैं कि विषैले नागों का भी जोड़ा रख लेती हूँ, औषधि के काम आएगा।
वहीं अब्राहम रिलिजन या कहें पश्चिम और अरब की धरती से जो रिलिजन आए उनमें नाग को वह कारक बताया गया जिसके कारण आदम को स्वर्ग से निष्कासित होना पड़ा था और उसके पास श्राप था कि उसे आदम खोज खोज कर मारेगा।
यहाँ नाग की पूजा है, नाग पंचमी है,
वहां नाग शत्रु है,
तो ऐसे में जब सनातन के किसी धार्मिक ग्रन्थ का अनुवाद पश्चिम से आया हुआ कोई करेगा और नाग देवता लिखेगा तो उपहास के साथ लिखेगा,
वह सहजता के साथ नाग देवता को प्रणाम नहीं लिख पाएगा, और यह असहजता कई अनुवादों में परिलक्षित सी होती है
हमने मात्र दो शब्दों के उदाहरण लिए हैं, ऐसे तमाम शब्द हैं। क्योंकि सीएफ एंड्रूज़ के अनुसार कोई भी चीज सेक्युलर नहीं होती है। अंग्रेजी शिक्षा का अर्थ होता है, ईसाई शिक्षा। हर भाषा की अपनी एक धार्मिक पहचान होती है। डफ का भी यही कहना था कि हिन्दू धर्म के दुर्ग को नष्ट करना है और वह भी एजुकेशन के द्वारा!
अवधारणाओं पर ही मूल प्रहार किया गया।और कहीं न कहीं ऐसे भाषांतरणों ने उस विमर्श की नींव डाली जो अपने धार्मिक ग्रंथों को ईसाइयत के चश्मे से देखता था।
वह नाग को उस दृष्टि से नहीं देख सकती, जैसा हिन्दू देखते हैं! गाय जहां एक स्थान पर गौ माता है तो वहीं दूसरी अवधारणा में वह पशु ही है!
जैसे मन्त्रों का अनुवाद नहीं हो सकता, क्योंकि मन्त्र एक विशेष प्रकार की ध्वनि संरचना एवं किसी उद्देश्य के लिए ही रचे जाते थे! परन्तु यदि जिस व्यक्ति का विश्वास ही उस अवधारणा पर, नहीं है तो क्या वह भाषांतरण कर पाएगा? हर देव का आह्वान करते हुए मन्त्र हैं, तो ऐसे में उनका भिन्न मत की भाषा में भाषांतरण वह व्यक्ति कर पाएगा जिसका विश्वास ही उस मत में नहीं है?