रामचरित मानस के अंग्रेजी अनुवादकों एवं मिशनरीज़ की दृष्टि में गोस्वामी तुलसीदास एवं रामचरित मानस

भारत में रामचरित मानस एक ऐसा ग्रन्थ है जिस पर अभी तक विमर्श हो रहा है, वह ग्रन्थ इस सम्बन्ध में भी विशेष है कि भारत में मिशनरियों ने भी तुलसीदास जी को इस ग्रन्थ के माध्यम से महानतम कवि बताया है तथा यह बताया है कि “स्थानीय” भाषा में लिखे गए इस ग्रन्थ का प्रभाव जनमानस पर कितना है तथा आखिर ऐसा क्या लिखा है तथा कैसे लिखा है, कि सदियों पूर्व लिखा गया यह ग्रन्थ इतने सांस्कृतिक एवं धार्मिक आक्रमणों के उपरान्त भी चेतना में बना हुआ है, मात्र चेतना में ही नहीं है, इसने पहले इस्लामिक आक्रमणकारियों के हमलों के मध्य भारत के हिन्दू लोक को साहस प्रदान करने का कार्य किया तो वहीं अंग्रेजों के शासनकाल में भी रामचरित मानस अपना स्थान बनाए रखे हुए है।

यह ऐसा प्रश्न है, जिसने पश्चिमी विचारकों को अत्यंत आतंकित किया एवं उन्हें यह विमर्श करने पर बाध्य किया होगा कि एक जनकवि ने आखिर कैसा वह ग्रन्थ रच डाला, जिसने राष्ट्र की आहत चेतना में प्राणों का संचार किया। भारत में जनजागरण तथा उसके मिशनरी पहलुओं पर विस्तार से लिखने वाले सीएफ एंड्रूज़ जब भारत में धर्मग्रंथों एवं भक्ति संतों के साथ उनके जनमानस पर प्रभाव की बात करते हैं तो वह लिखते हैं कि

“सभी भक्ति संतों में तथा सभी देशज कवियों में भारत में महानतम कवि तुलसीदास हैं।”  फिर वह लिखते हैं कि वह भारत के तीन उत्कृष्ट धार्मिक विद्वानों में अंतिम तथा कई तरीकों में सर्वाधिक मानवीय, हैं, तथा वह तीन सर्वश्रेष्ठ धार्मिक विद्वान सीएफ एंड्रूज़ के अनुसार हैं गौतम बुद्ध जिनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक था तथा उनकी शिक्षाएं काफी दूर तक गईं, परन्तु भारत का दिल कभी भी उनके साथ नहीं जा पाया। आदि गुरु शंकराचार्य, जो महान विचारक एवं संगठनकर्ता थे, परन्तु उनकी शक्ति वैचारिक थी तथा लोगों के दिलों तक वह गूढ़ता नहीं पहुँच सकती। परन्तु तुलसीदास का सदेश सीधे भारत के दिल में पहुंचा। क्योंकि उन्होंने स्थानीय भाषा में लिखा तथा उन्का लिखा रामचरित मानस इस समय (यह पुस्तक 1912 में प्रकाशित हुई थी) भारत के मैदानी क्षेत्रों में लगभग एक सौ मिलियन लोगों के द्वारा पढ़ी जाती है तथा पूजी जाती है; इसका पाठ लगभग हर भारतीय गाँव में होता है तथा हिन्दुओं के सबसे बड़े त्योहार में इसका मंचन होता है![1]

सीएफ एंड्रयूज़ का यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उनकी इस पुस्तक में इस बात पर बल दिया गया है कि कैसे मिशनरीज़ को भारत के लोक को अपने पक्ष में करना है तथा कैसे भारत के लोक की स्मृतियों को धुंधला करके एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जो मात्र जन्म से या देखने से ही भारतीय लगे परन्तु वह मिशनरीज़ का सदेश आगे लेकर जाएं। तथा ऐसे में जब वह लोक पर रामचरित मानस के प्रभाव का वर्णन करते हैं, तो वह उस कवि एवं कविता की महानता बताने के लिए पर्याप्त है जिसने लोक को इस्लामी ही नहीं बल्कि बौद्धिक रूप से आक्रमणकारी अंग्रेजों के शासनकाल में भी सम्हाल कर रखा हुआ था।

वह बार बार इस बात पर बल देते हैं कि तुलसीदास जी ने जिस प्रकार से प्रभु श्री राम के चरित्र को प्रस्तुत किया है, उसने जनमानस में यह विश्वास जगाया है कि राम हैं एवं राम अपने भक्तों के लिए आने के लिए सदा तैयार हैं, यदि भक्त राम के आदर्शों पर चलें तथा यह अवतार की बात तुलसी अपनी रचना के हर मोड़ पर लाते हैं, जो पूरी तरह से कवि के अपने धार्मिक अनुभवों के आधार पर है।

उसके बाद वह कहते हैं कि तुलसी के राम की उपस्थिति हर स्थान पर देखी जा सकती है तथा राम के अवतार को बताने वाले तुलसीदास सबसे विनम्र एवं सबसे मानवीय कवि है तथा उसके बाद उन्होंने अपना मिशनरी एजेंडा खेलते हुए कहा है कि उन्होंने जिस प्रकार से राम के चरित्र को लिखा है, वह “शंकायुक्त गोस्पेल्स” में बताई गयी अवतार की अवधारणा के अनुसार है।

अर्थात सीएफ एंड्यूज जो भारत में मिशनरी अर्थात एक रिलीजियस अभियान के लिए आए हैं तथा जिनके कार्य की प्रशंसा उस समय यूनाइटेड काउंसिल फॉर मिशनरी स्टडीज ने की थी, वह एक ओर भारत के लोक पर रामचरित मानस के प्रभाव को बताते हुए उसे अपने रिलीजियस विचारों के चलते झूठा ठहरा रहे हैं।

या कहें इन पंक्तियों के माध्यम से रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की विश्वसनीयता को अंतर्राष्ट्रीय अकादमिक जगत में कम करने का प्रयास कर रहे हैं। या फिर वह यह कहना चाह रहे हैं कि यह रामचरित मानस ही है जिसके कारण मिशनरीज़ का रिलीजियस अभियान विफल हो रहा है क्योंकि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के माध्यम से हर प्रश्न एवं हर जिज्ञासा का उत्तर दे दिया है, इसलिए भारत के हृदय अर्थात हिन्दी बोलने वाला क्षेत्र मिशनरीज़ के कुचक्र में नहीं फंस पा रहा है!

रामचरितमानस के अनुवादकों की दृष्टि में तुलसीदास एवं मानस:

परन्तु ऐसा नहीं है कि गोस्वामी तुलसीदास जी से मात्र मिशनरीज़ ही आतंकित या कहें प्रभावित हुई हों। रामचरित मानस की कई विशेषताओं के कारण तथा इस कारण कि अंतत: ऐसा क्या है इस पुस्तक में कि इसके स्वामित्व वाले व्यक्ति को आदर की दृष्टि से देखा जाता था तथा ऐसा क्या था इस पुस्तक में कि इसके आधार पर मंचन हुआ करता था।

रामचरित मानस के कई अंग्रेजी अनुवाद हुए हैं। इनमें तीन अनुवाद महत्वपूर्ण हैं तथा उससे महत्वपूर्ण है कि उनकी जो भूमिकाएं हैं उसमें तुलसीदास जी एवं रामचरित मानस के विषय में क्या लिखा है। हम इन तीनों ही अनुवादों की भूमिकाओं में देखेंगे कि अंतत: ऐसा क्या कारण रहा होगा, ऐसा क्या प्रयोजन रहा होगा कि वह इसका अनुवाद करने के लिए बाध्य हुए। क्योंकि जैसे काव्य प्रयोजन होता है, वैसे ही अनुवाद का भी प्रयोजन होता है।

काव्य का कोई भी कार्य, कोई भी रचनात्मक कार्य बिना प्रयोजन के सम्बंच ही नहीं है।

हर काल के अनुसार रचनात्मक कार्य का प्रयोजन भिन्न रहा है। जहाँ भरत मुनि नाट्यशास्त्र में नाटक के उद्देश्यों पर विचार करते हुए इसे धर्म, यश, आयु का साधक, कल्याणकारी, बुद्धिवर्धक एवं लोकोपदशक बताते हैं तथा साथ ही वह नाटक के प्रयोजनों में लोक का मनोरंजन, शोक पीड़ितों को एवं परिश्रान्त जनों को विश्रांति प्रदान करना बताते हैं। वामन काव्य के प्रयोजनों में दृष्ट एवं अदृष्ट बताते हैं। वह कहते हैं कि दृष्ट लौकिक कीर्ति, तो अदृष्ट आलौकिक फल के लिए है। तो वहीं रुद्रट ने काव्य प्रयोजन का विस्तार करते हुए छः तत्वों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार: काव्य का उद्देश्य है: यश की प्राप्ति (कवि के लिए), चरित्रनायकों के यश का विस्तार, कवि काव्य-सृष्टि कर चरित्र नायक के यश को फैलाता है, धन एवं असाधारण सुख तथा अभीष्ट कामनाओं की प्राप्ति, रोग मुक्ति, अभीष्ट वरदान की प्राप्ति, चतुर्वर्ग की सिद्धि ही काव्य रचना के उद्देश्य हैं।[2]

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि “साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आंकलन से बहुदर्शिता बढ़े, बुद्धि की तीव्रता प्राप्त हो, ह्रदय में एक बार संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं तथा आत्मगौरव की उद्भावना होकर वह पराकाष्ठा को पहुँच जाए। मनोरंजन मात्र के लिए प्रस्तुत किए गए साहित्य से भी चरित्र को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए

तो क्या अनुवाद के लिए भी कुछ प्रयोजन होता है? इस बात का उत्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल द लाइट ऑफ एशिया के अनुवाद की भूमिका में देते हैं। चूंकि इस ग्रन्थ का लेखन एडविन आर्नोल्ड ने इसलिए किया था क्योंकि वह एक ऐसे नायक का चरित्र दुनिया के सामने लाना चाहते थे जिन्होनें शताब्दियों पूर्व इस भारत भूमि पर जन्म लिया तथा पूरे विश्व में भारत का नाम छा गया।

तथा रामचंद्र शुक्ल इसके अनुवाद की भूमिका में लिखते हैं कि वे इस ग्रन्थ का अनुवाद इसलिए करना चाहते थे जिससे एक लुप्त होती परंपरा दोबारा से जीवित हो सके। वे लिखते हैं:

“रामकृष्ण के चरितगान का मधुर स्वर भारत की सारी भाषाओं में गूँज रहा है पर बौद्ध धर्म के साथ ही गौतम बुद्ध की स्मृति तक जनता के हृदय से दूर हो गई है। ‘भरथरी’ तथा ‘गोपीचन्द’ के जोगी होने के गीत गाकर आज भी कुछ रमते जोगी स्त्रियों को करुणार्द्र करके अपना पेट पालते चले जाते हैं पर कुमार सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्रमण की सुधा दिलानेवाली वाणी कहीं भी नहीं सुनाई पड़ती है। जिन बातों से हमारा गौरव था उन्हें भूलते-भूलते आज हमारी यह दशा हुई।“

अर्थात बिना प्रयोजन के अनुवाद भी नहीं किया जा सकता है, तो क्या ऐसा ही कोई प्रयोजन रामचरित मानस का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले अनुवादकों के सामने भी रहा होगा? ऐसे प्रश्नों के उत्तर उनकी भूमिका पढ़कर ही प्राप्त होता है। जे एम मैकेफी द्वारा रचित THE RAMAYAN OF TULSIDAS OR THE BIBLE OF NORTHERN INDIA में जे एम मैकेफी इस पुस्तक में अत्यधिक प्रभावित हैं तथा वह लिखते हैं कि तुलसीदास का नाम उत्तर भारत में हिन्दी भाषी परिवारों में परिचित नाम है। सोलहवीं शताब्दी में जन्मे तुलसीदास ने वाल्मीकि की रामायण में वर्णित रामकथा को इस प्रकार से अपने तरीके से लिखा है कि वह न ही तो रामायण का हिन्दी अनुवाद है तथा न ही संस्कृत महाग्रंथ का एक संस्करण।

फिर वह लिखते हैं कि

तुलसीदास एक महानतम कवि थे, मात्र अनुसरणकर्ता नहीं! तथा उनके भीतर कवि की वह विशेष उत्कृष्टताएं थीं जिनके कारण उनका ग्रन्थ अत्यंत लोकप्रिय हुआ तथा जिस ग्रन्थ के कारण आधुनिक हिंदुत्व को तथा पोषण मिला है। अर्थात जे एम मैकेफी भी इस बात को मानते थे कि यह ग्रन्थ मुग़ल काल तथा अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान धर्मान्तरण के मध्य कहीं न कहीं एक बाधा था, क्योंकि इस ग्रन्थ ने राम के प्रति तुलसीदास के प्रेम को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि वह प्रेम एवं भक्ति के माध्यम से धर्मान्तरण का भी सामना करने में समर्थ था, तथा एक प्रकार से लोक संस्कृति के संरक्षण में समर्थ था।

वह आगे कहते हैं कि तुलसी के राम संवेदना से परिपूर्ण हैं एवं उनकी आराधना हर कोई कर सकता है। मात्र राम ही शुद्ध नहीं हैं, बल्कि वह हर उस व्यक्ति को शुद्धता प्रदान करते हैं जो उनकी शरण में आता है। इतना ही नहीं जे एम मैकेफी यहाँ तक लिखते हैं कि तुलसी के राम किसी अन्य देव का विरोध करने के लिए नहीं है। तथा इसी भूमिका में वह कहते हैं कि यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय है तथा इतना लोग इसे पूजते हैं, जितना कि इंग्लैड भी लोग बाइबिल को नहीं पूजते होंगे।

तथा फिर मैकेफी इस अनुवाद के प्रयोजन के विषय में बात करते हैं, वह कहते हैं कि

“यह वक्तव्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि कैसे इस ग्रन्थ की लोकप्रियता ने पश्चिमी अवलोकनकर्ताओं को प्रभावित किया है। कुछ पुस्तकें प्रख्यात होती हैं या बहुत अधिक प्रभावित करती हैं तथा हमें यह सत्य मान लेना चाहिए कि  यह पुस्तक “उत्तर भारत की बाइबिल है!”[3]

जब हम इसके दूसरे अनुवाद The Holy Lake Of The Acts of Rama जिसका अनुवाद डब्ल्यू डगलस पी हिल ने किया है, को पढ़ते हैं तो उसमें लिखा है कि रामचरित मानस एक सरल तथा शुद्ध धर्मसिद्धांत है, जो मुक्ति की अवधारणा बताती है, तथा वह भी आम हिन्दू को उसकी अपनी घरेलू भाषा में। यह कविता मात्र वीरता, कोमलता एवं प्रेम के आदर्श को प्रस्तुत नहीं करती है बल्कि साथ ही यह वचन भी देती है कि यदि राम में कोई भी व्यक्ति अपना विश्वास, सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत करेगा तो उसे अंतिम मुक्ति भी राम नाम के स्मरण से ही प्राप्त हो जाएगी।

फिर वह लिखते हैं कि “कोई अचरज की बात नहीं है कि पिछले तीन सौ वर्षों से यह कविता उत्तर भारत के आम लोगों के बीच सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ बना हुआ है।” वह राम कथा के बहाने लक्ष्मण एवं भरत द्वारा प्रस्तुत भाई प्रेम, सीता की पति के प्रति निष्ठा एवं प्रेम आदि को बताते हैं, जिन्होनें भारत के लोक के पुरुष एवं स्त्रियों को अपने जादू में जकड़ कर रखा है।

वह भी इस ग्रन्थ की लोकप्रियता से प्रभावित होकर लिखते हैं कि इस कविता की लोकप्रियता का अनुमान मात्र इस बात से लगाया जा सकता है कि आज तक इसके आधार पर रामलीला का मंचन किया जा रहा है।

वह इस कविता को हाईएस्ट आर्टिस्टिक मेरिट आर्थात सर्वोच्च रचनात्मक गुण के कार्य के रूप में बताते हैं। तथा वह यह भी लिखते हैं कि जहाँ पश्चिमी आलोचक इस असाधारण सौन्दर्य के चरित्रचित्रण एवं कई पंक्तियों के प्रशसंक हैं, तो वहीं उन्हें आलोचना करने के लिए स्थान ही नहीं मिलता है तथा कवि इस कविता में कविता में कवि ही नहीं है बल्कि उपदेशक भी है।[4]

अब तीसरे अनुवाद अर्थात The ramayana of Tulsidas जिसे एफएस ग्रोव्से ने किया है, उसमें ग्रोव्से के कथन पर ध्यान देते हैं। इसका प्रकाशन संभवतया 1883 का है। वह लिखते हैं यह हिन्दी कविता इस समय हिन्दू जाति के प्रचलित धर्म के विषय में बताने के लिए सर्वश्रेष्ठ दिशानिर्देशक है क्योंकि यह वर्तमान में उसकी मौजूदा भाषा में लिखी गई है।

इसमें वह भूमिका में बहुत बड़ी बात लिखते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिक विचार भी कहीं न कहीं ऊन्हीं विचारों को बताते हैं, जो वेदान्त सिद्धांत में दिए गए हैं, तथा जो इस पुस्तक में कवि ने भी कही हैं, परन्तु हमें इस बात का  प्रमाण नहीं मिलता है कि राम तथा कृष्ण का कभी अवतरण हुआ है या नहीं![5]

रामचरितमानस के अनुवाद ही यह तीनों ही भूमिकाएं कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डालती हैं, सर्वप्रथम तो यह इस बात की महत्ता को स्थापित करती हैं कि विदेशी आलोचक या कहें पश्चिमी आलोचक इस पुस्तक की लोकप्रियता को लेकर हैरान हैं, वह यह समझने में विफल हैं कि आखिर वह कौन सा तत्व है जो अभी तक इस पुस्तक के साथ भारत के जनमानस को जोड़े हुए है,

दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कि यदि कवि लोक को अपने शब्दों में पिरोता है, अपनी संस्कृति एवं अपने धर्म को अपने कार्यों में प्रकट करता है, वह लोक एवं अपनी रचना के मध्य सामंजस्य बनाता है, तो वह मात्र अपने स्थान पर ही लोकप्रिय नहीं होगा बल्कि उसकी लोकप्रियता दसों दिशाओं में तथा हर भाषा में फैलेगी। तो कहीं न कहीं यह भूमिकाएँ यह भी स्थापित करती हैं कि “जो स्थानीय है, वही अंतर्राष्ट्रीय है!

एवं अंतर्राष्ट्रीय होने के लिए विदेशी बिम्ब या विदेशी विचार के स्थान पर स्थानीय विचार तथा स्थानीय लोक धर्म एवं संस्कृति को अपनाना ही सफल मापदंड है!


[1] सीएफएंड्रूज़, द रेनेसां इन इंडिया एंड इट्स मिशनरी आस्पेक्ट्स, चर्च मिशनरी सोसाइटी, सालिसबरी स्क्वायर, लन्दन ईसी 1912 पृष्ठ 96-97

[2] डॉ। हीरा, राजवंश सहाय भारतीय आलोचना शास्त्र, 2014, बिहार हिंदी ग्रन्थ अकादमी पृ 82

[3] जे एम मैकेफी THE RAMAYAN OF TULSIDAS OR THE BIBLE OF NORTHERN INDIA, भूमिका पृष्ठ xvii

[4] The Holy Lake Of The Acts of Rama, डब्ल्यू पी डगलस, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, भूमिका

[5] The ramayana of Tulsida, एफएस ग्रोव्से, भूमिका पृष्ठ liii

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