उनमें बुद्धिमानी और चपलता दोनों ही कूट कूट कर भरी हुई थीं। ऐसा नहीं था कि वह एक आसान जीवन नहीं जी सकती थीं, वह भी अंग्रेजी सरकार में आराम से जी सकती थी, क्यों नहीं जी सकती थीं? आखिर क्या समस्या थी? पर उन्होंने एक ऐसा मार्ग चुना, जिस पर चलना उस समय खतरे से खाली नहीं था। उन्हें यह ज्ञात था कि आगे जाकर उनके ही देश में स्त्री की चेतना पर प्रश्न उठाए जाएंगे तो उन्होंने जैसे अपने जीवन को ऐसे लक्ष्य के लिए समर्पित किया जो असंभव था, पर उनके जीवन के संघर्ष को उन्हें ही बताना पड़ा। हम जैसी कृतघ्न स्त्रियों ने उनके महान जीवन को बिसरा दिया।
वर्ष 1883 में जन्मी क्षीरोदा सुन्दरी के पिता थे शिव सुन्दर राव और माता थी दुर्गा सुन्दरी देवी। जैसे गुण अपनी माँ से ही ले लिए थे। इनका विवाह खारुआ ग्राम के बृज किशोर चौधरी से हुआ था। परन्तु भाग्य ने उन्हें सम्भवतया उस जीवन के लिए बनाया ही नहीं था। तभी बृज किशोर का देहांत हो गया और मात्र 32 वर्ष की उम्र में वह विधवा हो गईं।
यह एक विडम्बना है कि क्षीरोदा देवी एवं ननी बाला देवी दोनों ही विधवा थीं, और दोनों ने ही समाज के साथ मिलकर अपना जीवन स्वतंत्रता के स्वप्न के लिए समर्पित कर दिया। इससे यह मिथक भी टूटता है कि विधवा स्त्रियों की समाज एवं परिवार में पहचान या सम्मान नहीं था।
उनके ससुराल में स्वतंत्रता की अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही थी। विद्रोही क्षितिज चौधरी उनके देवर का बेटा था। क्षितिज चौधरी मैमनसिंह के प्रसिद्ध विद्रोही नेता श्री सुरेन्द्र मोहन घोष के साथ कार्य करते थे। और ऐसे में उन्हें अपनी इस चाची से बहुत सहायता प्राप्त हुई। वह जब जब फरार होते तो उनकी चाची को भी फरार होना होता। और वह अपने देश को आज़ादी दिलाने के लिए इधर उधर भटकने का कष्ट सहती रहतीं। पुलिस पीछे पड़ी रहती और यह लोग फरार रहते। धोखा देते हुए आगे बढ़ते। कितना जूनून था, देश के लिए कितनी पीड़ा थी। पुलिस पीछे पड़ी रहती, मगर मजाल है कि वह जरा भी अपना मुख मोड़ती, और इस प्रकार वह इधर उधर भागती रहीं।
उन्हें क्रांतिकारी माँ का दर्जा दे चुके थे। कई क्रांतिकारी उनकी इस छाँव में पनाह लेते थे। वह फरार हो जाती थीं। यदु गोपाल मुखर्जी, नलिनीकांत, सतीश ठाकुर, नगेन्द्र शेखर चक्रवर्ती, उषा राय, पृथीश वसु, आदि सब इनकी शरण में आते रहते। वह निराश नहीं करतीं, वह आगे बढ़कर सभी को स्नेह की छाँव में ले लेतीं।
आगे जाकर एक समय ऐसा आया इन्हें एक या डेढ़ महीने में ही जगह बदलनी पड़ जाती थी। वह लोग अंतत: धुबड़ी गाँव में बसे। पहले कुछ लोगों को भेजा गया। पुलिस को भी भनक पड़ी। फिर एक बार पुलिस के गुप्तचरों ने सूचना दे ही दी। पर पुलिस के आने से पहले ही वह काशी चली गईं, पुलिस ने उन्हें मगर हिरासत में ले ही लिया, पर पुलिस उनका मुंह नहीं खुलवा पाई। जब उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं मिला तो पुलिस को उन्हें छोड़ना पड़ा।
और इस प्रकार अपने देश की सेवा करती रहीं क्षीरोदा सुन्दरी! और यह कहानी भी प्रकाश में तब आई जब उन्होंने 1959 में 76 साल की उम्र में स्वयं लिखा, फिर भी हम अभी तक उनका नाम नहीं लेले, यही वैचारिक गुलामी है!
और हमसे कहा गया कि स्त्रियों में चेतना नहीं थी, स्त्री को दबाया जाता था, स्त्री को मारा जाता था, स्त्री को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता था। दरअसल जिन लोगों ने यह अफवाहें फैलाईं, वह स्वयं स्त्रियों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते थे इसलिए स्त्रियों में आत्महीनता का विकास करने के लिए यह सब बातें फैलाईं और आयातित विमर्श आरम्भ किया।