आज परिचय ले लेते हैं, उस युग की स्त्रियों का जिस युग में यह प्रमाणित करने की होड़ लग गयी थी कि स्त्री में चेतना नहीं होती या फिर स्त्री पिछड़ी होती है। आज से कुछ स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम स्त्रियों के जीवन में प्रवेश करेंगे, दबे पांव क्योंकि वह इतिहास की उस चादर के नीचे हैं, जहाँ पर हमारे लेखक पहुँच नहीं पाते और आयातित विमर्श के चलते मात्र स्त्री को पिछड़ा बताते हैं। आइये चलते हैं ननी बाला देवी के जीवन काल में।
ननी बाला देवी का जन्म वर्ष 1888 में हावड़ा के बाली में एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्हें बंगाल की प्रथम क्रांतिकारी के रूप में जाना जात
उनका विवाह 11 वर्ष की उम्र में हो गया था, परन्तु पांच ही वर्ष उपरान्त वह विधवा हो गयी थीं। कह सकते हैं सिंगल थी। आजकल की सिंगल महिला आइकन जैसी नहीं जो सिंगल होने का अर्थ नहीं जानतीं। वह विधवा हो गयी थीं। पर देश के लिए कुछ करने का मन था। उनके हृदय में देश प्रेम और सेवा की जो ज्योति जगी, उसने उन्हें इस संघर्ष में झोंक दिया। उनके हृदय में प्रकाश कर दिया। पर आज उनका नाम कोई नहीं जानता है। क्यों नहीं जानता है, यह मैं पाठकों पर छोडती हूँ और उनकी कहानी आज आप सबके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ।
उन्होंने अमरेन्द्र नाथ चटर्जी से दीक्षा ली थी। यह वह समय था जब क्रान्ति का प्रथम दौर चल रहा था। क्रांति के प्रथम दौर में कांतिकारियों के लिए आश्रय स्थल जुटाने, फंड इकट्ठा करने, गुप्त दस्तावेज इधर से उधर पहुंचाने, युवक युवतियों को प्रशिक्षित करने में ननी देवी बाला का भी बहुत बड़ा योगदान था।
वह भूमिगत रहकर काम करती थीं। क्रांति के प्रथम दौर में जब दमन का दौर भी भयानक था और सामाजिक बहिष्कार भी क्योंकि यह दूर दूर तक नहीं पता था कि अंग्रेज जाएंगे भी या नहीं? और कब जाएँगे।
अंग्रेज पुलिस उन्हें बहुत शिद्दत से खोज रही थी। और एक दिन जब वह हैजे से पीड़ित होकर घर में आराम कर रही थीं, तो पुलिस आई और वह उन्हें उसी स्थिति में पकड़ कर ले गयी। जेल में उन्हें तरह तरह की यातनाएं दी गईं। यहाँ तक कि वह अधमरी हो गईं, पर पुलिस को उन पर तरस नहीं आया। हर प्रकार की अमानवीय यातनाओं में उन्हें वस्त्रहीन करके मारना भी शामिल था। तीन दिनों में उन्हें इस प्रकार यातनाएं दी गईं कि वह विक्षिप्त हो गईं पर उन्होंने अपने मुख से किसी भी राज को नहीं बताया।
यहाँ तक दावा किया जाता है कि उनके उनके विभिन्न अंगों में पिसी हुई मिर्च तक भरी गई थी। दर्द से कराहती हुई ननिबाला ने महिला पुलिस को जोरदार ठोकर मारी और बेहोश हो गईं।
यह उनका देश के लिए किया गया निस्वार्थ प्रेम था, इतना ही नहीं वह दूसरों के लिए भी आवाजें उठाती थीं। उनकी जेल में एक और लड़की दुकड़ी बला देवी भी थीं। उस लडकी के पास एक पिस्तौल पाई गयी थी, और इस कारण उसे आर्म्स एक्ट में गिरफ्तार किया गया था। उस पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल कर दी थी। उन्हें एक बार जेलर ने थप्पड़ मारा। दूसरा थप्पड़ मारने जा रहा था तो बीस दिनों से भूख हड़ताल कर रही ननी देवी ने उसका हाथ पकड़ लिया था और कहा था “हम राजनीतिक कैदी हैं, तुम्हारे निजी गुलाम नहीं जो हमारे साथ ऐसे अत्याचार करोगे!” उसके बाद जेलर के हाथ रुक गए, और जब दुकड़ी देवी का काम किया गया तभी ननी देवी ने अपनी भूख हड़ताल समाप्त की।
पर वह पागल थीं, जो देश और अनजान लड़की के लिए लड़ीं क्योंकि जब वह रिहा होकर वापस आईं तो उन्हें मिला गुमनाम जीवन और समाज की उपेक्षा। वह 1919 में जेल से बाहर आईं, तो यह दुनिया जैसे उनके लिए थी ही नहीं। उनका घर बार सब कुछ छीन गया था। फिर वह एक छोटी सी झुग्गी में रहकर अभाव और कष्टपूर्ण जीवन जीती रहीं। और अंतत: एक गुमनामी मृत्यु का वरण कर लिया। सबसे दुखद तो अंग्रेजों के भय से उनके अपने रिश्तेदारों द्वारा ही शरण न देना रहा। कुछ वेबसाइट्स के अनुसार वर्ष 1967 में उनकी मृत्यु हो गई।
उन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, पर हमारे इतिहास ने ननी देवी को भुला ही दिया और साथ ही सबसे बड़ा अन्याय किया स्त्रियों ने! स्त्रियों ने अपने लिए आत्महीनता का ऐसा विमर्श अपना लिया है, जिसमें उनके अपने अस्तित्व के प्रति घृणा है, और जिससे वह छुटकारा पाना चाहती हैं, वह पुरुष हो जाना चाहती हैं!
जबकि आवश्यकता ननी बाला देवी जैसी स्त्रियों की कहानियाँ पढने की है! नई पीढ़ी के सामने यह कहानियां सामने लाने की आवश्यकता है!