वीरांगना प्रीतिलता वादेदार

क्या हम सभी को यह नाम परिचित लगता है? कौन प्रीतिलता? कौन वादेदार? हमारे दिमाग में जरा भी नहीं आता यह शब्द! और क्यों आएगा? क्योंकि हमने सोचा नहीं! हम नहीं सोचना चाहते, हम नहीं झांकना चाहते अपने अतीत में। मगर क्या अतीत इतना भयभीत करने वाला है? हम अपनी स्त्री धरोहरों को इतना क्यों तजे बैठे हैं? यह प्रश्न मेरी समझ से परे है।

तो आइये हम प्रीतिलता के विषय में जानते हैं। सन 1857 की क्रान्ति के उपरान्त जो स्वतंत्रता की अग्नि जली थी उसमें से कई नायिकाओं ने जन्म लिया।  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की इस महान नायिका का जन्म 5 मई 1911 को तत्कालीन पूर्वी भारत (और अब बांग्लादेश) में स्थित चटगाँव के एक गरीब परिवार में हुआ था।  उन्होंने मैट्रिक किया और उसके उपरान्त इंटर भी किया और ढाका बोर्ड में पांचवें स्थान पर आईं।

फिर उन्होंने स्नातक भी किया। पर क्या आप जानते हैं कि उन्हें स्नातक की उपाधि नहीं दी गयी थी। कारण था उनका स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेना, परन्तु यह उन्हें दी ही नहीं जा सकती थी! बुझाए न बुझती है न यह पहेली। तो आइये चलते हैं उनके जीवन की यात्रा पर!

उन दिनों बंगाल में स्वतंत्रता की अग्नि धीरे धीरे स्वरुप में आने लगी थी।  बालपन से ही वह केवल और केवल यही कहतीं थीं कि ईश्वर और देश के लिए शपथ लो, न कि ब्रिटिश सरकार की वफादारी की। और उस बालिका के हृदय में यह अग्नि और किसी ने नहीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन के अध्ययन ने लगाई थी। उनका का भी दिल होता कि वह भी अपना जीवन देश पर बलिदान कर दें। पर उन्हें क्या पता था कि उन्हें एक दिन पहचाना भी न जाएगा।

इस आग में अपना अस्तित्व भी स्वाहा कर लिया था उन्होंने। क्रान्तिकाई सूर्यसेन के साथ वह भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हो गईं।  एक 18 – 19 वर्ष की लड़की अपनी मर्जी से क्रांति पथ पर चल पड़ी थी और हमें क्या पढ़ाया गया कि स्त्रियों को न ही पढने देते थे और न ही निर्णय लेने देते थे। यदि ऐसा था तो प्रीतिलता के साथ ऐसा क्या था? वह लड़की थीं और उन्हें शिक्षा प्राप्त हुई और उन्होंने अपने मन से निर्णय लिया।  और वह भी इतना साहसिक निर्णय।

18 अप्रेल 1930 को हुए चटगाँव शस्त्रागार काण्ड के बाद ब्रिटिश सेना और क्रांतिकारियों के बीच संघर्ष ठन गया था और जिसके कारण कई क्रांतिकारियों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था। सूर्यसेन अपने साथियों की इस स्थिति से बहुत दुखी थे और वह प्रतिशोध लेना  चाहते थे। मृत्यु तो इस देह की निश्चित ही है, अत: मृत्यु से क्या डरना! प्रीतिलता भी यह जानती थीं और फिर उन्होंने बाँध लिया केसरिया साफा अपने सिर पर!

और फिर उन्होंने क्लब पर हमला करने का निश्चय किया। सभी साथियों के हाथों में हथियार थे और था पोटेशियम साइनाइड। पहाड़ी की तलहटी में बसे हुए यूरोपीय क्लब पर धावा बोलना और शराब में डूबे हुए लोगों को सबक सिखाना।   प्रीति ने पंजाबी पुरुष का भेष रचा और 24 सितम्बर 1932 को यह आक्रमण किया। उन्होंने बाहर से खिड़की में बम लगाया, देखते ही देखते इमारत धमाकों से गूंजने लगी। 13 अंग्रेज घायल हुए और 1 यूरोपीय महिला को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। अंग्रेजों ने जबावी हमला किया, और जिसके कारण प्रीति गोली लगने के कारण घायल हो गईं।

आगे आगे वह भाग रहीं थीं और पीछे पीछे अंग्रेज! मगर जब यह निश्चित हुआ कि वह नहीं बचेंगी तो उन्होंने पोटेशियम खा लिया और इस प्रकार अपने जीवन को देश के लिए समर्पित कर दिया।

जब उन्होंने यह सर्वोच्च बलिदान दिया तब वह मात्र 22 वर्ष की थीं। 22 वर्ष में अपने प्राणों को देश के लिए समर्पित करने वाली प्रीति आज देश के लिए अनजान क्यों हैं, यह प्रश्न तो पूछना ही चाहिए स्वयं से?

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