वैदिक स्त्रियाँ

अद्भुत ऋषि वागाम्भृणी

उसने कहा मैं शक्ति हूँ! और कहा कि मैं परमात्मा के साथ एकाकार हूँ। इस जगत में आत्मा और परमात्मा एक ही है!” आत्मा और परमात्मा को एक कहने वाला सिद्धांत ऋग्वेद के दशम मंडल के 125वें सूक्त में प्राप्त होता है। जिसे हम अद्वैत सिद्धांत की प्रेरणा कह सकते हैं। वाग देवी के नाम से लिखे गए यह सूक्त जीवन के उस सिद्धांत की तरफ संकेत करते हैं, जो आगे जाकर पूरे विश्व में भारत की आध्यात्मिक पहचान बना।  अमम्भृणी महर्षि की पुत्री वागाम्भृणी, जिसने उन मन्त्रों की रचना की, जो आत्मा और परमात्मा के मध्य सम्बन्धों को बताते हैं। वह स्त्री है, परन्तु उसे यह पूरी तरह से ज्ञात है कि आत्मा के स्तर पर स्त्री क्या और पुरुष क्या। तभी वह स्वयं के विषय में कहती है कि वह परमेश्वर की प्रतिनिधि पारमेश्वरी है, जो ज्ञान शक्ति, पृथ्वी, आदि आठ वस्तुओं, प्राणस्वरूप ग्यारह रूद्रों, बारह मासों, अग्नि विद्युत्, दिन रात और पृथ्वी को धारण करती है।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।

अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥1

इसका अनुवाद अंग्रेजी में इस प्रकार किया गया है

I TRAVEL with the Rudras and the Vasus, with the Adityas and All-Gods I wander।

 I hold aloft both Varuna and Mitra, Indra and Agni, and the Pair of Asvins। (Ralph T।H। Griffith)

वागाम्भृणी, जो यह स्पष्ट कहती हैं कि वह ज्ञानशक्ति सूर्य, वायु और यज्ञ को धारण करती है और वह उस यजमान आत्मा के लिए संपत्ति को धारण करती है जो यज्ञ करने वाले विद्वानों के लिए सोम्राश निकालता है।

अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥2

I cherish and sustain high-swelling Soma, and Tvastar I support, Pusan, and Bhaga।

     I load with wealth the zealous sacrificer who pours the juice and offers his oblation 

विनोबा अपनी पुस्तक वेदामृत में वागाम्भृणी को सबसे महान ऋषिकाओं में से एक बताते हैं। वह कहते हैं कि वागाम्भृणी एक बृह्मचारिणी थी। अर्थात उसने ज्ञान के कारण विवाह नहीं किया था। वह इस तथ्य से अत्यंत प्रभावित हैं कि वागाम्भृणी ने स्वयं को उस सीमा तक भगवान के साथ जोड़ लिया था कि वह परमात्मा की महिमा गाते गाते गाने लगी थीं, “भगवान की रचना मेरी ही रचना है,” उसने स्वयं को राष्ट्र का देवता मान लिया था।

उसके रचे सूक्तों को देखा जाए तो यह पता चलेगा कि उसने ज्ञान प्राप्त स्त्री को इतना ज्ञानी एवं शक्तिशाली बताया है जो न केवल जलवायु को नियंत्रित कर सकती है, अर्थात वर्षा, ग्रीष्म आदि के चक्र को नियंत्रित करती है, अपितु वह अपनी संगत में आए हुए मनुष्यों को तेजस्वी बनाती है, वह उन्हें ब्रह्म बना सकती है, वह उन्हें ऋषि बना सकती है।

अपने सूक्तों के माध्यम से वागाम्भृणी ने ज्ञान की महत्ता को स्थापित किया है।  वह आत्मा को परमात्मा कहते हुए कहती है कि मैं ही सर्वव्याप्त हूँ! यह परमात्मा है जो सर्वव्याप्त हैं। वह यही कहती हैं कि इस जगत में ब्रह्म को छोड़कर सब मिथ्या है।  वागाम्भृणी द्वारा रचे गए सूक्तों को देवी सूक्त कहा जाता है।  वागाम्भृणी को ज्ञान प्राप्त हुआ था, एवं इसी ज्ञान को उसने कह दिया। वागाम्भृणी के सामने भी कई बाधाएं आई होंगी, कई बार उसके सामने भी सांसारिक मोह का जाल आया होगा, पर उस समय उसने ज्ञान प्रचार हेतु जीवन समर्पित किया। उसने अविवाहित रहना स्वेच्छा से स्वीकार किया।  किसी और ने उससे शक्ति नहीं कहा, किसी और ने चाटुकारिता करते हुए नहीं कहा कि वह इतनी महान है! वर्षों के अध्ययन एवं तपस्या के साथ ही उसने यह ज्ञान प्राप्त किया होगा। वह ज्ञान जो सभी के लिए है। अंतिम सूक्त में वह कहती है कि मैं ही वायु वेग के समान वेग से गति करती हूँ, मैं अपने ही महत्व से इस पृथ्वी लोक से परे हूँ।

अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।

परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥

इसे अंग्रेजी में इस प्रकार कहा गया है:

I breathe a strong breath like the wind and tempest, the while I hold together all existence।

Beyond this wide earth and beyond the heavens I have become so mighty in my grandeur। (Ralph T।H। Griffith)

जिस प्रकार वह आत्मा की सर्वव्याप्त बताती है वह स्वयं में अद्भुत है।  सातवें सूक्त में वह कहती है कि आत्मा ही वह शक्ति है जो हर कण में व्याप्त है और जो इस आकाश में व्याप्त है।  

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।

ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥

यह कहना कि अद्वैतवाद के सिद्धांत की प्रेरणा इसी देवी सूक्त से प्राप्त हुई हो, अतिश्योक्ति नहीं है।

यह स्त्रियाँ गुम नहीं हुई हैं, हमारी चेतना में उपस्थित हैं।

जुहू ब्रह्मजाया

देववाणी कहे जाने वाले वेदों का अध्ययन कालान्तर में स्त्रियों के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। ऐसा क्या रहा होगा वेदों में? या ऐसा कुछ नहीं रहा होगा? क्या वेदों का अध्ययन स्त्रियों की चेतना से सम्बंधित है? ऐसे कई प्रश्न बाद में स्त्रियों के मस्तिष्क को मथते होंगे। या उन्होंने अब मथना बंद कर दिया है। एक कालखंड में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार रचे गए वेदों की विषयवस्तु से परे यह तो ज्ञान होना ही चाहिए कि वेदों में में स्त्रियाँ कितनी थीं? किन किन ऋषिकाओं का कितनी ऋचाओं को रचने में योगदान था। ऐसे प्रश्न आते ही स्त्रियों को वेदों की तरफ लौटना होगा। जब वह वेदों की तरफ लौटेंगी तो पाएंगी कि एक बार पुन: स्त्रियों के रचे गए सूक्त उनकी प्रतीक्षा में हैं। वह चाहते हैं कि उन पर बात हो, उन पर चर्चा हो।

आज जिस प्रकार स्त्रियाँ रच रही हैं, उस समय भी रचा करती थीं। उस समय भी पति किसी कारणवश या अहंकार के वशीभूत होकर त्याग दे तो स्त्री सभी देवों द्वारा प्रायश्चित कराकर कहलवाती थी कि देखो मेरा त्याग करना तुम्हारे वश की बात नहीं है। तुम्हें अंतत: आना मेरे ही पास पड़ेगा।

ऐसी ही एक ऋषिका थीं ब्रह्मजाया जूहू, जिन्होनें ऋग्वेद के दशम मंडल के 109वें सूक्त के 7 मन्त्रों/ऋचाओं को लिखा है। कहा जाता है कि वह देवगुरु बृहस्पति की पत्नी थीं, किन्हीं कारणवश या अहंकार वश बृहस्पति ने त्याग दिया।  स्वाभिमान रहा होगा तभी मन्त्रों में रोना गिडगिडाना नहीं दिख रहा है। मन्त्रों में यही दिख रहा है कि सभी देवताओं ने बृहस्पति से प्रायश्चित कराया।

तेऽवदन्प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेऽकूपारः सलिलो मातरिश्वा ।

वीळुहरास्तप उग्रो मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतेन ॥

(ऋग्वेद दशम मंडल 107 सूक्त, मन्त्र प्रथम)

अर्थात बृहस्पति ने जब अपनी पत्नी का त्याग किया एवं बृह्म किल्विष किया, उसका प्रायश्चित ब्रह्म की संततियों सूर्य, समुद्र, अग्नि ने बृहस्पति का प्रायश्चित कराया।

इन सभी मन्त्रों में एक उल्लेखनीय यह भी है कि स्त्री की तरफ से कतई भी यह याचना नहीं है कि उन्हें स्वीकार किया जाए। हाँ, यह अवश्य है कि उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और न ही दूसरे पुरुष की तरफ गईं। अत: बार बार इन मन्त्रों में उन्हें शुद्ध बताया गया है।

यह हो सकता है कि आज हम शुद्ध आदि शब्दों पर सहमत न हों, पंरतु जब इन मन्त्रों को पढेंगे तो तत्कालीन कालखंड के अनुसार ही देखा जाएगा। यहाँ पर मैं मन्त्रों की विषयवस्तु पर बल न देकर ऋषि जूहूब्रह्मजाया की विद्वता पर बात करना चाहती हूँ।

यह सभी सातों मन्त्र स्त्री के सम्मान को एक प्रकार से प्रतिस्थापित करते हैं कि यदि पति अपने अहंकार के चलते पत्नी के साथ कुछ अन्याय करता है, जो कि एक प्रकार से समाज द्वारा स्त्री के साथ किया गया अन्याय है तो ऐसे में स्त्री को परिवार में वापस लाने के लिए पूरे समाज को ही एक साथ इस भूल के प्रायश्चित के लिए आना चाहिए।

जूहू के मन्त्र पढने पर एक सचेतन स्त्री परिलक्षित होती है जिसे यह ज्ञात है कि समाज के संचालन के लिए जितना आवश्यक विवाह है उतना ही आवश्यक है स्त्री का स्वाभिमान और पुरुषों के साथ साथ समाज को भी अपनी भूल का अहसास होना।

 यह कथा यह बताती है कि हिन्दू समाज में परिवार की महत्ता पर ही बल दिया गया था। बार –बार जो फेमिनिस्ट इस बात पर बल देती हैं कि उन्हें पति की गलती पर परिवार तोड़ देना चाहिए, और वह अपना पूरा प्रयास करती भी हैं। यही कारण है कि ऐसे विवेकी मन्त्रों को वह आम विमर्श में सामने नहीं लाने देना चाहती हैं। वह नहीं चाहती हैं कि वेदों की यह चेतना स्त्रियों में वापस आए, इसलिए यह झूठ फैलाया गया कि स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार नहीं था !

कोई भी सजग स्त्री जब इन मन्त्रों का जाप करेगी तो वह स्वयं पर अकारण क्रोधित होने वाले पति या परिवार से यह पूछेगी कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं? या फिर उसके भीतर स्वाभिमान ही जागृत न हो पाए इस लिए ही उसके अध्ययन से शनै: शनै: वेदों को दूर कर दिया गया।

जूहू उसकी स्मृति में है ही नहीं। जूहू वेदों में है, जूहू वेद के मन्त्रों की रचयिता है परन्तु यह दुर्भाग्य है कि उसने जो स्वाभिमान और गौरव अपनी स्त्री जाति को दिया वह गौरव उसे आज प्राप्त नहीं है। क्यों?

जूहू ने अपने मन्त्रों के माध्यम से यह कहा है कि जब तक स्त्री को अहंकारवश त्यागकर आप आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे समाज आगे नहीं बढ़ेगा।  इसी सूक्त से अंतिम मन्त्र है:

पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वी देवैर्निकिल्बिषम् ।

ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वायोरुगायमुपासते ॥

वह लिखती हैं कि जब देवताओं और मनुष्यों ने ब्रह्मजाया को बृहस्पति को सौंप दिया और उनके सभी पापों से उन्हें मुक्त किया तभी सभी मनुष्य पृथ्वी के अन्न भंडार का प्रयोग कर सके।

गुण के सौन्दर्य को स्थापित करती रोमशा

“स्त्री का रूपरंग ही उसकी पहचान नहीं है अपितु उसका ज्ञान ही उसकी पहचान है!” यह परम्परा क्या आज की है कि आज की स्त्री अपने रूप रंग से अधिक अपनी शिक्षा के प्रति सजग है और अपने बाहरी रूप रंग से परे आत्मिक सौन्दर्य की बात करती है, या वह कहती है कि मेरे गुण हैं उन पर बात करिए, मेरी डिग्री पर बात करिए। मैं प्रदर्शन की वस्तु नहीं हूँ। यह विचार, आज की चेतना में कहाँ से आया? अपने अस्तित्व को उसी प्रकार से स्वीकार करवाना, जैसी वह है, क्या यह आधुनिक अवधारणा है या हमारी चेतना में ही यह किसी से पीढ़ियों से आया है।

ऋग्वेद के एक और ऋषिका का उल्लेख है, जिन्हें एक ऐसी स्त्री के रूप में जाना जा सकता है जिसने स्त्री के बुद्धि विवेक की कामना की। वह स्त्री थी ऋषिका रोमशा! जिनके विषय में कहा जाता है कि उनकी देह पर बहुत रोएँ थे जिसके कारण उनके पति भावभव्य उनकी उपेक्षा करते थे। रोमशा की देह पर रोम होने के कारण ही उनका नाम रोमशा पड़ा। भावभव्य राजा थे। रोमशा का उल्लेख कई लेखिकाओं ने अपनी अपनी पुस्तक में किया है। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ईको फेमिनिज्म में उनका उल्लेख है। यह पुस्तक के वनजा ने लिखी है। इसमें वह रोमशा का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि रोमशा अपने पति भावभव्य की बात का उत्तर देते हुए कहती हैं कि हे पति राजन, जैसे पृथ्वी राज्यधारण एवं रक्षा करने वाली होती है वैसे ही मैं भी प्रशंसित रोमोंवाली हूँ। मेरे समस्त गुणों को विचारों। मेरे कार्यों को अपने सामने छोटा न मानो।” (ईकोफेमिनिज्म-के वनजा, पृष्ठ 39।)

ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के सातवें मन्त्र की रचयिता रोमशा लिखती हैं 

“उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः।

सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका ॥“

रोमशा को स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर मानते हुए सुमन राजे अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का आधा इतिहास में, लिखती हैं कि जिस प्रकार रोमशा ने अपने पति से कहा है कि वह उनके रूप के स्थान पर गुणों पर ध्यान दें, वह स्त्री विमर्श का प्रथम स्वर है।

रोमशा ने यद्यपि एक ही सूक्त लिखा है, परन्तु यह सूक्त एक पूरे विमर्श की नींव रखने के लिए पर्याप्त है। आज जिस फेयर एंड लवली का बाज़ार हम देखते हैं, उसे हमारी स्त्रियाँ पहले ही कहीं अस्वीकार कर चुकी थीं। सौन्दर्य की अवधारणा सदा ही बौद्धिक एवं शारीरिक सौन्दर्य दोनों के साथ रही। जिन सुन्दर स्त्रियों का उल्लेख इतिहास में है वह सभी अद्वितीय सुन्दरी होने के साथ साथ बुद्धि एवं वीरता का भी उदाहरण थीं। परन्तु एक विदुषी स्त्री अपने शारीरिक रूप रंग को परे कर अपने स्वयं के अस्तित्व को स्वीकारने की बात वेदों के काल से कर रही थी।

तभी जो कृत्रिम सौन्दर्य के प्रतिमान आज हम स्वयं पर हावी होते देखते हैं, उसे स्वीकार करने में असहज अनुभव करते है। हमारी चेतना ही स्वाभाविक सौन्दर्य की है, सत्यम शिवम् सुन्दरम की है, अर्थात जो सत्य है वही सुन्दर है। रोमशा की देह पर रोम अर्थात रोएँ हैं, परन्तु उसमे तमाम गुण हैं, वह विमर्श करती है, वह हवन करती है और अपने पति को तर्क से समझाती भी हैं।

इसी प्रकार प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित सुधा शुक्ला कृत महिला पत्रकारिता में भी रोमशा का उल्लेख है। सुधा शुक्ला रोमशा को एक ऐसी स्त्री के रूप में बताती हैं जो स्त्री की बुद्धि में निरंतर वृद्धि की कामना करती है।  वह कहती हैं रोमशा ने स्त्री के बाह्य सौन्दर्य के स्थान पर उसकी बुद्धि, विवेक और प्रतिभा का प्रचार किया है।

स्त्री कभी भी प्रदर्शन की वस्तु नहीं थी, अपितु समय पर स्त्रियों ने अपने अस्तित्व को अपने रूप से ऊपर स्थान दिया। वह बाज़ार में उत्पाद बेचने वाली वस्तु नहीं थीं और न ही वह बाज़ार द्वारा बिछाए हुए उस जाल में फंसी जिसमें वह आज फंस रही हैं। रोमशा जिनके पति राजा थे, उन्होंने कृत्रिम श्रृंगार का सहारा न लेते हुए यह कहने का साहस किया कि मैं जैसी हूँ वैसी ही स्वीकारो! पूरे समाज में स्त्री के अस्तित्व के सौन्दर्य को स्थापित करती हुई रोमशा कितनी साहसी होगी कि वह हवन के दौरान यह कथन कह रही है!

रोमशा का यह कथन स्त्री विमर्श के नए द्वार खोलता है। तथा यह कथन उस मिथ्या विमर्श को भी झूठा स्थापित करता है कि स्त्री को प्राचीन काल से ही प्रदर्शन की वस्तु माना जाता था।  

विवाह मन्त्र रचने वाली सूर्या सावित्री

“विवाह एक नियत आयु पर ही किया जाना चाहिए एवं वधु को एक विशेष वाहन में ही पतिगृह लेकर जाना चाहिए।” सूर्या सावित्री ने ऋग्वेद में लिखा है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में 85वें सूक्त में 47 मन्त्रों की रचना सूर्या सावित्री नामक स्त्री ने की थी।

यह कहा गया कि स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार नहीं है और उसका जीवन मात्र विवाह उपरान्त घर की देहरी ही है। जब यह कहा जा रहा था तब विडंबना यह है कि विवाह में उन्हीं मन्त्रों को पढ़ा जा रहा था जिनकी रचना एक स्त्री ने की थी एवं वह भी विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ में की थी।

क्या यह विरोधाभास था कि जब स्त्री को बार बार यह कहा जा रहा था कि जो कुछ उसके श्वसुर गृह में उसके साथ हो उसे हर मान अपमान से परे होकर सहना है, उसी विवाह में जो मन्त्र थे वह कुछ और कह रहे थे। मन्त्र कह रहे थे कि वधु का सम्मान ही विवाह का प्रथम नियम है।

उसे पतिगृह की स्वामिनी बताया जा रहा था। सूर्या सावित्री लिखती हैं:

सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम् भव

ननान्दरि सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु।  (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85। मन्त्र 46)

अर्थात वह अपने श्वसुर गृह की साम्राज्ञी बने, अपनी सास की साम्राज्ञी बने, वह अपनी नन्द पर राज करे एवं अपने देवरों पर राज करे।

सूर्या सावित्री ने तब उन मन्त्रों की रचना की जब विश्व की कई परम्पराएं देह एवं विवाह के मध्य संबंधों को ठीक से समझ ही रही होंगी।

इन मन्त्रों में सहजीवन के सहज सिद्धांत हैं जो अर्धनारीश्वर की अवधारणा को और पुष्ट करते हैं। मन्त्र संख्या 43 में संतान की कामना के साथ ही एक साथ वृद्ध होने की इच्छा है।

आ नः प्रजां जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा

अदुर्मंगलीः पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम् चतुष्पदे ।

(ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85। मन्त्र 43)

अर्थात पति पत्नी द्वारा प्रजापति से मात्र अच्छी संतान की कामना ही नहीं है अपितु वृद्ध होने पर अर्यमा से रक्षा की भी प्रार्थना है, इसके साथ ही हर पशु के कल्याण की भी कामना है।

सूर्या सावित्री बाद में प्रचलित अबला स्त्री एवं त्यागमयी स्त्री की छवि से उलट यह कहती हैं कि स्त्री अपने पति के साथ अपनी संतानों के साथ अपने भवन में आमोद प्रमोद से रहे।

हज़ारों वर्ष पूर्व जब ऋग्वेद की रचना हुई तो स्त्रियों का योगदान हर स्वरुप में महत्वपूर्ण रहा था।  सूर्या सावित्री ने जब विवाह मन्त्रों की रचना की होगी तो उन्हें भी यह भान नहीं रहा होगा कि कालान्तर में कुरीतियों के चलते उन्हीं स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं प्रदान किया जाएगा जिसने इनकी रचना की है। वह भी मन ही मन दुखी होती होंगी एवं व्यंग्य में परिहास करती होंगी कि देखो मनुष्यों को, स्त्रियों पर प्रतिबन्ध भी लगा रहा है एवं एक स्त्री को वह स्वयं के जीवन में एक स्त्री के मन्त्रों द्वारा ही प्रवेश करा रहा है।

हज़ारों वर्षों से विवाह का अभिन्न अंग बने यह मन्त्र विवाह संस्था के उस रूप को जन्म दे चुके हैं, जो हज़ारों वर्षों इस देश में ही नहीं बल्कि जहाँ जहाँ हिन्दू धर्म है वहां पर अव्याहत और बिना विकृत हुए अनवरत चली आ रही है।

सूर्या सावित्री ने स्त्रियों के लिए विवाह के जब मन्त्र लिखे तो यह कामना की कि नव विवाहित दंपत्ति के जीवन की सभी बाधाएं एवं सभी शत्रु उनके जीवन से भाग जाएं, वहीं वह कालान्तर में आने वाली उन बाधाओं को नहीं रोक सकीं, जो स्त्रियों की शिक्षा में आईं।  परन्तु सूर्या सावित्री को इस भूमि की स्त्री की चेतना पर विश्वास था, और समय के साथ स्त्रियों की चेतना ने उन्हें निराश नहीं किया है।  जिस प्रकार उन्होंने स्त्री का विवाह के उपरान्त पथ सुगम करने की कामना की थी, उसी प्रकार चेतना का मार्ग भी सुगम हुआ। काल ने हँसते हुए कहा “जहाँ पर विवाह संस्था के मन्त्र ही एक स्त्री ने रचे, क्या वहां पर स्त्री का इतिहास नहीं होगा? जब तक विवाह रहेगा, मन्त्र रहेंगे, स्त्री रहेगी!”

जब किसी ने कहा कि स्त्रियों का इतिहास नहीं होता, तो इतिहास ही नहीं वेदों के झरोखों से झांककर सूर्या सावित्री मुस्कराती हैं और मन्त्र बुदबुदाती हैं

समंजन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ

सं मातरिश्वा सं धाता सं देष्ट्री दधातु नौ । (ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85। मन्त्र 47)

विश्ववारा

जब से सृष्टि है तब से स्त्री पुरुष के दाम्पत्त्य जीवन का विवरण प्राप्त होता है। वैदिक काल से ही स्त्रियों ने दाम्पत्त्य सुख के विषय में लिखा है। विवाह हो या विवाह के उपरान्त का जीवन, स्त्री एवं स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण को बार बार स्त्रियों ने ही लिखा है। स्त्रियों ने बार बार यह लिखा है कि स्त्री के साथ के बिना पुरुष संसार नहीं जीत सकता है। कोई भी पुरुष तभी विजयी होगा जब वह अपने जीवन में आई हुई स्त्री को सम्मान देते हुए बढेगा।  स्त्री ने कर्म सिद्धांतों को बताया।

यह सब कुछ स्त्रियों ने वेदों में लिखा।

ऋग्वेद में एक नहीं कई ऋचाएं हैं जिन्हें स्त्रियों ने रचते हुए कई सिद्धांत रच दिए हैं।

एवं जब कहा जाता है कि स्त्री को भारतीय संस्कृति में परदे के पीछे रखा जाता था, या बन्धनों में बांधा जाता था वह भी विश्ववारा के माध्यम से असत्य प्रमाणित होता है। यह भी कहा जाता है कि अतिथियों के आगमन पर स्त्रियों के लिए पृथक स्थान प्रदान किया जाता था, वह इस मंडल के 28वें सूक्त के प्रथम मन्त्र से ही खंडित हो जाता है जिसमें अग्नि देव की आराधना करते हुए ऋषिका विश्ववारा का उल्लेख है, कि अग्नि का जो तेज है वह आकाश तक अपनी ज्वाला फैलाए है और विदुषी स्त्री विश्ववारा विद्वानों का सत्कार करते हुए यज्ञ कर रही है।

ऋग्वेद के पंचम मंडल के 28वें सूक्त में ऋचाएं रचने वाली विश्ववारा ने अग्निदेव की आराधना करते हुए तीसरी ऋचा में लिखा है कि

अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु।

सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥३॥ (ऋग्वेद 5 मंडल 28 सूक्त मन्त्र 3)

इसका अंग्रेजी अनुवाद है

Show thyself strong for mighty bliss, O Agni, most excellent be thine effulgent splendours।

 Make easy to maintain our household lordship, and overcome the might of those who hate us। (Ralph T।H। Griffith)

इस में अग्नि से दाम्पत्त्य सम्बन्ध सुदृढ़ करने के कामना के साथ ही यह भी कामना की गई है कि उनका नाश हो जो उनके दाम्पत्त्य जीवन के शत्रु हैं।  स्त्री विजयी होना चाहती है, परन्तु वह विजय वह अकेले नहीं चाहती, वह चाहती है कि जो उसके जीवन में हर क्षण साथ निभा रहा है, वह उसके साथ ही हर मार्ग पर विजयी हो।

विश्ववारा को कर्म सिद्धांत प्रतिपादन करने वाली भी माना जाता है। विश्ववारा ने चौथे मन्त्र में अग्नि के गुणों की स्तुति की है।

समिद्धस्य प्रमहसोऽग्ने वन्दे तव श्रियम्।

वृषभो द्युम्नवाँ असि समध्वरेष्विध्यसे

इसका अंग्रेजी अनुवाद है:

Thy glory, Agni, I adore, kindled, exalted in thy strength।

A Steer of brilliant splendour, thou art lighted well at sacred rites।

(Ralph T।H। Griffith)

विश्ववारा द्वारा स्वयं यज्ञ किए जाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है, विश्ववारा ने अपने मन्त्रों के माध्यम से अग्निदेव की प्रार्थना की है, प्रार्थना में अग्नि देव के गुणों के वर्णन के साथ साथ दाम्पत्त्य सुख का भी उल्लेख है। स्त्री को सदा से ही भान था कि एक सफल दाम्पत्त्य के लिए क्या आवश्यक है और क्या नहीं, देवों से क्या मांगना चाहिए, अतिथियों का स्वागत किस प्रकार करना चाहिए। जब हम सृष्टि के प्रथम लिखे हुए ग्रन्थ को देखते हैं, और उसमें हमें विश्ववारा भी टकराती हैं तो सच कहिये क्या क्रोध की एक लहर आपके भीतर जन्म नहीं लेती कि यह मिथ्याभ्रम किसने और क्यों उत्पन्न किया कि स्त्री को वेद अध्ययन करने का अधिकार नहीं? क्या आपको यह मन्त्र पढ़ते हुए एक चेतना का आभास नहीं हो रहा?

विश्ववारा का हमारी चेतना से लुप्त हो जाना हम पर भी एक प्रश्न चिन्ह है। इसमें गलती विश्ववारा की न होकर उस मानसिकता की है जो बार बार इस कुचेष्टा में रही कि किसी प्रकार स्त्री वही सोचे जो वह चाहती है, स्त्री वही देखे, जो वह मानसिकता दिखाना चाहती है और स्त्री वही करे जो वह मानसिकता कराना चाहती है।

विश्ववारा के मन्त्रों का ऋग्वेद में होना यह तो सुनिश्चित करता ही है कि स्त्रियों के हाथ में कलम तब से है जब से उसके मुख ने बोलना सीखा था। जो आज हम बोल रहे हैं, जो आज हम लिख रहे हैं, वह हमारी चेतना में विश्ववारा जैसी स्त्रियों से ही आया है।  स्त्री ने समग्र विकास का सिद्धांत लेकर विकास किया है, वह एकांगी नहीं रही है, आज भी यदि दुराग्रह लेकर हम भारतीय स्त्रियों की तरफ देखेंगे तो विश्ववारा नहीं दिखाई देंगी, परन्तु जब भी भारतीय दृष्टि लेकर भारतीय स्त्रियों की तरफ देखेंगे तब विश्ववारा ही नहीं और भी स्त्रियाँ हमें स्वरचित शब्दों के साथ दिखाई देंगी।

स्त्री की यौनेच्छा का सम्मान कराने वाली- लोपामुद्रा

“हे महर्षि, यदि आप मुझसे संतान हेतु सम्बन्ध बनाना चाहते हैं तो आपको मुझे उत्तम गहनों एवं वस्त्रों से सुशोभित करना ही होगा। मुझे यह ज्ञात है कि आपने मुझसे इसी कारण विवाह किया है कि आप एक योग्य संतान के पिता बन सकें। परन्तु मेरे ह्रदय में जो आपके लिए प्रीति है, उसे भी आप को ही सफल करना है! हे महर्षि, मैं अपने पिता के महल में एक सुन्दर शैया पर शयन करती थी, मुझे रति क्रीड़ा के लिए उसी प्रकार की शय्या की चाह है।”

लोपामुद्रा ने अपने प्रति आसक्त हुए अपने पति ऋषि अगस्त्य से कहा। वह जान रही थी कि समय आ गया है जब उसे न केवल अपने पति की इच्छा पूरी करनी है, अपितु स्वयं अपनी भी आकांक्षाएं पूरी करनी है।  ऋषि अगस्त्य विदर्भ देश की राजकुमारी को ब्याह कर ले तो आए थे, परन्तु अप्सराओं को मात देने वाली राजकुमारी लोपामुद्रा एक साधारण स्त्री की भांति अपने इस क्षण को साधारण नहीं बनाना चाहती थी। वह चाहती थी कि जब वह प्रेम के क्षण में प्रवेश करे तो एक एक क्षण को स्मरणीय बनाए। उसने एक क्षण रूककर फिर बोला “मैं चाहती हूँ कि आप भी सुन्दर हार एवं आभूषण से विभूषित हों एवं मैं भी! मैं इन साधारण वस्त्रों में किसी भी भांति आपके साथ समागम नहीं करूंगी! आपको यदि समागम करना है तो आपको इन सबकी व्यवस्था करनी ही होगी!:

स्त्री की इस प्रकार की इच्छा व्यक्त करने वाले संवाद ऋग्वेद का भी हिस्सा हैं। एवं महाभारत के वनपर्व में भी इस कथा का वर्णन है। यह संवाद अत्यंत ही रोचक है क्योंकि इसमें ऋषि पत्नी लोपामुद्रा द्वारा अत्यंत स्पष्ट शब्दों में देह समर्पण के लिए उसे क्या चाहिए, यह वर्णन है। वह कहती है कि इन जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में वह समागम नहीं करेगी! तथा ऋषि अगस्त्य लोपामुद्रा की इस इच्छा को पूरी करने के बाद ही उसके साथ समागम करते हैं।

वह तपस्या का सहारा नहीं लेते, जबकि तपस्या के माध्यम से वह चाहते तो कर सकते थे। परन्तु वह दूसरा पहलू है। यहाँ पर यह देखना अत्यंत रोचक है कि जिस बात को आज कहने में स्त्रियों को न जाने क्या क्या उपाधियाँ दे दी जाती हैं, वह उस समय कितनी आसानी से कह दी जाती थीं एवं पुरुष भी उसकी पूर्ति सहर्ष करते थे।  ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 179वें सूक्त का उदाहरण देते हुए सूर्यकांत बाली भारत गाथा में लोपामुद्रा की यौनेच्छा को बताते हुए लिखते हैं कि “लोपामुद्रा का प्रथम मन्त्र में ही कहना है कि – मैं कई वर्षों से ऐसे ही रातें गुजार रही हूँ, फिर सुबह हो जाती है! आखिर क्यों नहीं पत्नियों को अपने पति का सौख्य प्राप्त होना चाहिए?”

इसी सूक्त के चौथे मन्त्र में वृद्ध अगस्त्य कहते हैं कि लोपामुद्रा ने इतना आकृष्ट किया कि मेरा धीरज काम नहीं आया!”

उल्लेखनीय यह है कि इन सभी सन्दर्भों को मात्र ऋग्वेद में ही नहीं अपितु महाभारत में भी उद्घृत किया गया है। आज हम आयातित नैतिकता के बोझ तले इन्हें अश्लील कहने के लिए विवश हो सकते हैं या फिर भारतीय ग्रन्थों पर अश्लीलता का आरोप लगा सकते हैं, परन्तु क्या कभी हम यह सोच पाएंगे कि हमारे समाज में वर्जित सहज रूप से बहुत कम चीज़ें थीं। क्या हम हज़ारों वर्ष पहले की सभ्यता के स्वस्थ दिमाग की कल्पना कर सकते हैं जिसने अगस्त्य जैसे ऋषि को यह सब लिखने की प्रेरणा भी दे दी होगी। लोपामुद्रा ने अपनी इच्छा को इस प्रकार व्यक्त किया, परन्तु लोपामुद्रा का आदर कम नहीं हुआ, और न ही अगस्त्य ऋषि की प्रतिष्ठा में कोई कमी आई। 

वहीं जब हम पतन के शिकार हुए तो हमने देखा कि कैसे स्त्री की इस इच्छा व्यक्त करने को अश्लील माना जाने लगा। और यह मनोरंजन के सभी माध्यमों में दिखा। जैसे हमने साहब बीबी और गुलाम में देखा! उस फिल्म में स्त्री मन की इस सहज इच्छा को पूरा करने के लिए नायिका क्या क्या नहीं करती है। प्रश्न यह भी है कि स्त्री मन की इस सहज इच्छा को हमने श्लीलता और अश्लीलता की श्रेणी में क्यों बाँध लिया? क्यों समय के साथ पुरुष को ही उसका स्वामी बना दिया गया, जबकि वह एक यात्रा के दो यात्री हैं, परस्पर सहभागी और एक दूसरे की इच्छा का मान रखने वाले! जब वह एक दूसरे के साथी थे तो उन्हें एक वर्ग ने स्वामी और दासी के सम्बन्ध में बदल दिया और जब क्रान्ति आई तो परस्पर शत्रुओं में!

लोपामुद्रा की कहानी अपनी इच्छाओं को कहने की कहानी है, यह सहज प्रेम और दाम्पत्त्य की कहानी है!

सुरमा पाणी संवाद

“हे पाणी, तुमने इंद्र की गौओं को चुराकर जो पाप किया है, तुम उनकी क्षमा मांग लो, और गौ धन देवताओं को वापस कर दो!” देवताओं की दूत सरमा ने पाणियों के सम्मुख कहा! पाणी देव लोक की गौ चुराकर ले आए थे। और उन्होंने अज्ञात स्थान पर रख दिया था। इंद्र को नहीं पता था कि देवलोक का गौधन कहाँ है, बस इतना पता था कि पाणी चुरा कर ले गए थे।

ऋग्वेद के दसवें मंडल का 108वां सूक्त अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना बनकर सामने खड़ा है। यह स्वयं में महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसमें सरमा – पाणी संवाद है। सरमा नामक स्त्री देवताओं की दूत बनकर गौ का हरण करने वाले पाणियों के पास इंद्र का सन्देश लेकर गयी थी।

पाणियों को एक स्त्री को दूत के रूप में पाकर आश्चर्य होता है। पाणियों को ही क्यों, यदि आज कहा जाए कि उस समय भी स्त्रियों को दूत के रूप में भेजने की परम्परा थी, या कहें धारणा थी तो अचरज होना स्वाभाविक है।

इन मन्त्रों को पढ़ने से कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं, कि सरमा को दूत के उत्तरदायित्वों का पूरा ज्ञान था, उसके साथ ही उसे अपने राजा के प्रति उत्तरदायित्वों का ज्ञान था। यह सूक्त इस कारण भी महत्वपूर्ण हैं कि वह दो राज्यों के मध्य जो सम्बन्ध हैं उनके विषय में भी बात करती है। सरमा को बोध है कि जब वह एक दूत के रूप में आई है तो उसे किसी भी लोभ या मोह में नहीं पड़ना है।

पाणी उसे लोभ और मोह से घेरना चाहते हैं और गौ का लालच देकर उसे अपनी तरफ करने का प्रयास करते हैं, एवं सरमा को वह अपनी बहन कहते हैं। इस पर सरमा स्पष्ट करती हैं कि वह किसी भी भाईचारे या बहनापे को नहीं मानती है, उसकी निष्ठा अपने राज्य के प्रति है।

वह कहती है

नाहं वेद भ्रातृत्वं नो स्वसृत्वमिन्द्रो विदुरङ्गिरसश्च घोराः । गोकामा मे अच्छदयन्यदायमपात इत पणयो वरीयः ॥

Brotherhood, sisterhood, I know not either: the dread Angirases and Indra know them।

     They seemed to long for kine when I departed। Hence, into distance, be ye gone, O Panis।

इसके अतिरिक्त वह यह भी कहकर पाणियों को चेतावनी देती है कि यदि उन्होंने गौ धन का मार्ग नहीं बताया तो ऋषि शीघ्र आएँगे और जो सोमरस से शक्ति प्राप्त होंगे, और वह गौ धन वापस लेकर जाएंगे।

एह गमन्नृषय: सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः । त एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वच: पणयो वमन्नित् ॥

Rsis will come inspirited with Soma, Angirases unwearied, and Navagvas।

     This stall of cattle will they part among them: then will the Panis wish these words unspoken।

इस मन्त्र से भी कुछ बातें स्पष्ट होती हैं कि युद्ध करने के लिए ऋषि भी आ सकते हैं, और सोमरस का अर्थ मद्य नहीं था जैसा कुछ पुस्तकों में दिखाया जाता है। सोमरस एक औषधि युक्त पेय था जिसे शक्ति प्राप्त करने हेतु पिया जाता था, चूंकि वार्ता करने के लिए सरमा आई थी तो अब आगे के क़दमों के लिए अन्य आएँगे।

पाणियों को वेदों में यज्ञकरने वालों का विरोधी बताया गया है, एवं पाणी वह व्यक्ति है जो हर तरह के गलत कार्यों में संलग्न है, परन्तु उनसे वार्ता करने के लिए भी एक स्त्री को ही भेजा गया।

इससे पूर्व कि इसका विश्लेषण हो यह देखा जाना चाहिए कि एक स्त्री दूत बनकर अपने राजा का संदेशा लेकर जा सकती थी। उसे दूत के समस्त कर्तव्यों का ज्ञान था। एवं सबसे महत्वपूर्ण कि वह दुर्जनों के दरबार पहुंचकर भी सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त है। इन सभी 11 मन्त्रों में एक बार भी वह स्वयं की सुरक्षा के प्रति प्रश्न नहीं उठाती है। उसे ज्ञात है कि सज्जनों एवं दुर्जनों दोनों के ही दरबारों में दूत का स्थान विशेष होता है, उसके साथ ही वह लालच को ठोकर मारती है। इसका अर्थ है कि उसे शास्त्र संबंधी ज्ञान है जिसमें अपनी मिट्टी के प्रति निष्ठा रखना सिखाया गया है।

जब पाणी उसे अपनी शक्ति का लोभ दिखाते हैं तो वह भी अपने देश के राजा तथा अन्य लोगों की शक्ति का बखान करती है।  पाणियों को चेतावनी देते हुए वह कहती है

असेन्या व: पणयो वचांस्यनिषव्यास्तन्व: सन्तु पापीः । अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ॥

अर्थात हो सकता है कि तुम्हारी देह बाणों से घायल न हो पाती हो, ए पाणी, परन्तु मुझे विश्वास है कि यदि गौ धन को नहीं छोड़ा जाता है तो बृहस्पति तुम्हें अवश्य दंड देंगे।

Even if your wicked bodies, O ye Panis, were arrow-proof, your words are weak for wounding;

  And were the path to you as yet unmastered, Brhaspati in neither case will spare you।

यह पूरा संवाद स्त्री रोजगार की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, जो यह स्पष्ट करता है कि स्त्रियों की नियुक्ति विभिन्न पदों पर होती थी एवं उन्हें उस पद के अनुकूल ज्ञान होता था।

उर्वशी पुरुरवा संवाद (ऋग्वेद दशम मंडल, सूक्त 95)

यह कथा विश्व की सबसे प्राचीन प्रेम कथाओं में से एक प्रेम कथा है। अप्सरा पुत्री उर्वशी और मानव राज पुरुरवा की। न जाने कितने नाटक लिखे गए इस कथा पर, न जाने कितनी अंतर्कथाएं इस प्रेमकहानी से उपजीं! इस कथा के नायिका और नायक के मध्य संवाद वेदों का भी हिस्सा हैं। उर्वशी, जिस पर पुरुरवा अपना ह्रदय हारे और पुरुरवा पर उर्वशी अपना! परन्तु वह अप्सरा पुत्री थी, वह मानवों में आ नहीं सकती थी, और पुरुरवा के बिना रह भी नहीं सकती थी। यह कैसी एक प्रेम कहानी थी, जिसमें विरह था, मिलन था! संयोग एवं वियोग की यह कहानी अद्भुत प्रेम कहानी है। इस प्रेम कहानी का एक सिरा स्वर्ग में है और एक सिरा धरा पर! और बीच में उन्हें जोड़ता है प्रेम! कैसे पुरुरवा उर्वशी को बचाते हैं, कैसे उर्वशी पुरुरवा की देहयष्टि पर ह्रदय हारती है। यह जो ह्रदय की हारजीत है, और उसके उपरान्त उर्वशी का स्वर्ग जाना है!

इंद्र द्वारा उर्वशी को जाने देना, परन्तु शर्त के बंधन में बाँध देना, उसके बाद उसका स्वर्ग वापस जाना। पुरुरवा जैसे सम्राट का व्याकुल हो जाना,  यह सब इस प्रेम कथा में और भी रस भरते हैं। उर्वशी को इंद्र वापस बुलाना चाहते थे, वह प्रेम में थी।  मानव और देवताओं के मध्य इस सम्बन्ध में उसने पुरुरवा के सम्मुख तीन शर्तें रखी थीं!

“मुझसे विवाह की कुछ शर्तें होंगी नरश्रेष्ठ! मैं अप्सरा हूँ!” त्रैलोक्य सुन्दरी उर्वशी ने पुरुरवा की ओर देखते हुए कहा

“तुम एक स्त्री हो उर्वशी! मैं तुम्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा!” पुरुरवा ने उर्वशी को आलिंगन में भरते हुए कहा

यह प्रेम ही था जो उर्वशी को इंद्र के वैभव में बाँध नहीं पाया था! पुरुरवा से शत्रुता मोल लेना इंद्र के वश में नहीं था। अत: इंद्र ने कुछ अवधि के लिए उर्वशी को उसके प्रिय के साथ रहने का मौक़ा दिया था, उर्वशी उसे स्थाई कर लेना चाहती थी। उर्वशी को ज्ञात था कि संतान होते ही उसे वापस जाना होगा! अत: उसने तीन शर्तें रखीं थीं, इन शर्तों में एक शर्त थी कि यद्यपि वह अपने प्रिय को सहवास का सुख देगी, परन्तु वह राजा को निर्वस्त्र न देखे, यदि ऐसा हुआ तो वह उन्हें त्याग कर चली जाएगी!

पुरुरवा में प्रेमी पुरुरवा उदास हो गया, परन्तु उसकी प्रेयसी उसके पास है, इसीसे वह प्रसन्न था। समय गति से बीत रहा था। गन्धर्व चित्ररथ को उर्वशी को गन्धर्व लोक में बुलाने की जल्दी थी। अत: एक षड्यंत्र रचा गया।

“प्रिय, तुम इन दो मेषों (मेमने) से बहुत प्रेम करती हो, कतिपय मुझसे भी अधिक!” एक दिन पुरुरवा ने छेड़ा था उर्वशी को!

“हे भूपति! यह हम गन्धर्वों की विशेषता है! हम अप्सरा निरीह जंतुओं से प्रेम करते हैं। इनकी माता को किसी ने आखेट में मारडाला था, इसलिए यह मेरे पास हैं! इनकी रक्षा का उत्तरदायित्व मुझपर और अब आप पर है!”

पुरुरवा और उर्वशी नित की भांति प्रेम में लीन थे। तभी नन्हें मेमनों की चीत्कार से महल गूँज उठा,

“हे भूपति, कोई उन्हें लिए जा रहा है!”

पुरुरवा उस समय उर्वशी की शर्तों में बंधे थे कि यदि वह उन्हें निर्वस्त्र देखेगी तो त्याग कर देगी, परन्तु जब वह और चीखकर बोली कि हे राजन आप जैसे वीर के रहते मेरे मेष कोई चोरी किए जा रहा है, हाय रे भाग्य, नृपश्रेष्ठ के महल में भी यही होना था!”

पुरुरवा वस्त्र पहने बिना अपनी तलवार उठाकर उन गन्धर्वों के पीछे भागे, परन्तु इसी मध्य विश्वावसु ने चकमक रगड़ कर विद्युत् का प्रकाश उत्पन्न किया और उसने उर्वशी ने राजा को नग्न देख लिया!

उर्वशी यह धरा छोड़कर चली गयी, विरह में डूबा पुरुरवा भटकता रहा। और जब उर्वशी से पुन: भेंट हुई यह संवाद तभी का है!

उर्वशी ने भी इस सूक्त में कुछ मन्त्रों की रचना की है! कई सूक्त हैं जिनके सम्मुख ऋषि के रूप में उर्वशी का उल्लेख है। सबसे महत्वपूर्ण सूक्त है जिसमे वह पुरुरवा से कहती हैं कि वह लौट जाएं और वह कभी भी नहीं हारेंगे, वह नहीं मरेंगे!

उर्वशी और पुरुरवा का संवाद ऋग्वेद में है तो वहीं यह कथा श्रीमद्भागवत में भी है। उर्वशी और पुरुरवा पर जहाँ अन्यों ने भी सूक्त लिखे वहीं उर्वशी ने स्वयं भी लिखे!

यह प्रेम कथा तमाम उतार चढ़ावों के उपरान्त अपने लक्ष्य अर्थात विवाह तक पहुँचती है। ऋग्वेद की स्त्रियों का वर्णन इस कथा के बिना अधूरा है!

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